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श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)

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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में भी मनोहारी कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।

ब्राह्मण-संत-वन्दना

बंदउँ प्रथम महीसुर चरना।
मोह जनित संसय सब हरना।।
सुजन समाज सकल गुन खानी।
करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी।

पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं। फिर सब गुणों की खान संत-समाज को प्रेमसहित सुन्दर वाणीसे प्रणाम करता हूँ॥२॥

साधु चरित सुभ चरित कपासू।
निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा।
बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥

संतों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन)-के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती है, संत-चरित्रमें भी विषयासक्ति नहीं है, इससे वह भी नीरस है; कपास उज्ज्वल होता है, संतका हृदय भी अज्ञान और पापरूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिये वह विशद है, और कपास में गुण (तन्तु) होते हैं, इसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्गुणों का भण्डार होता है, इसलिये वह गुणमय है।) [जैसे कपास का धागा सूई के किये हुए छेद को अपना तन देकर ढक देता है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जानेका कष्ट सहकर भी वस्त्रके रूपमें परिणत होकर दूसरोंके गोपनीय स्थानोंको ढकता है, उसी प्रकार] संत स्वयं दुःख सहकर दूसरोंके छिद्रों (दोषों)-को ढकता है, जिसके कारण उसने जगतमें वन्दनीय यश प्राप्त किया है।॥३॥

मुद मंगलमय संत समाजू।
जो जग जंगम तीरथराजू।
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा।
सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥

संतों का समाज आनन्द और कल्याणमय है, जो जगतमें चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है। जहाँ (उस संतसमाजरूपी प्रयागराजमें) रामभक्तिरूपी गङ्गाजीकी धारा है और ब्रह्मविचारका प्रचार सरस्वतीजी हैं।। ४।।

बिधि निषेधमय कलिमल हरनी।
करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी।
सुनत सकल मुद मंगल देनी॥

विधि और निषेध (यह करो और यह न करो) रूपी कर्मोंकी कथा कलियुगके पापोंको हरनेवाली सूर्यतनया यमुनाजी हैं और भगवान विष्णु और शङ्करजीकी कथाएँ त्रिवेणीरूपसे सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनन्द और कल्याणोंकी देनेवाली हैं।॥५॥

बटु बिस्वास अचल निज धरमा।
तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा।
सेवत सादर समन कलेसा॥

[उस संतसमाजरूपी प्रयागमें] अपने धर्ममें जो अटल विश्वास है वह अक्षयवट है, और शुभकर्म ही उस तीर्थराज का समाज (परिकर) है। वह (संतसमाजरूपी प्रयागराज) सब देशोंमें, सब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करनेसे क्लेशोंको नष्ट करनेवाला है ॥६॥

अकथ अलौकिक तीरथराऊ।
देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥

वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है, एवं तत्काल फल देने वाला है; उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है ॥७॥

दो०-- सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहि चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग ॥२॥

जो मनुष्य इस संत-समाजरूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और फिर अत्यन्त प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर के रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-चारों फल पा जाते हैं ॥२॥

मजन फल पेखिअ ततकाला।
काक होहिं पिक बकर मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई।
सतसंगति महिमा नहिं गोई॥

इस तीर्थराजमें स्नान का फल तत्काल ऐसा देखनेमें आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है।।१॥

बालमीक नारद घटजोनी।
निज निज मुखनि कही निज होनी।।
जलचर थलचर नभचर नाना।
जे जड़ चेतन जीव जहाना॥

वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजीने (जीवनका वृत्तान्त) कही है। जलमें रहनेवाले, जमीनपर चलनेवाले और आकाशमें विचरनेवाले नाना प्रकारके जड़-चेतन जितने जीव इस जगत में हैं, ॥२॥

मति कीरति गति भूति भलाई।
जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई।
सो जानब सतसंग प्रभाऊ।
लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥

उनमें से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पायी है, सो सब सत्संगका ही प्रभाव समझना चाहिये। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का अन्य कोई उपाय नहीं है ॥३॥

बिनु सतसंग बिबेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला।
सोइ फल सिधि सब साधन फूला।

सत्संगके बिना विवेक नहीं होता और श्रीरामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहजमें मिलता नहीं। सत्संगति आनन्द और कल्याणकी जड़ है। सत्संगकी सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल हैं ॥ ४॥

सठ सुधरहिं सतसंगति पाई।
पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं।
फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं।

दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है (सुन्दर सोना बन जाता है)। किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं (अर्थात् जिस प्रकार साँप का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाशको नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टोंके संगमें रहकर भी दूसरोंको प्रकाश ही देते हैं, दुष्टों का उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता)॥५॥

बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी।
कहत साधु महिमा सकुचानी।
सो मो सन कहि जात न कैसें।
साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥

ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डितों की वाणी भी संत-महिमा का वर्णन करने में सकुचाती है; वह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचने वाले से मणियों के गुणसमूह नहीं कहे जा सकते ॥ ६॥

दो०- बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोई।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥३(क)॥

मैं संतों को प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु! जैसे अञ्जलि में रखे हुए सुन्दर फूल [जिस हाथने फूलोंको तोड़ा और जिसने उनको रखा उन] दोनों ही हाथों को समान रूप से सुगन्धित करते हैं [वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते हैं] ॥३(क)॥

संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥३(ख)॥

संत सरलहृदय और जगतके हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेहको जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनयको सुनकर कृपा करके श्रीरामजीके चरणोंमें मुझे प्रीति दें। ३ (ख)॥

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