आचार्य श्रीराम शर्मा >> वर्तमान चुनौतियाँ और युवावर्ग वर्तमान चुनौतियाँ और युवावर्गश्रीराम शर्मा आचार्य
|
0 |
मेरी समस्त भावी आशा उन युवकों में केंद्रित है, जो चरित्रवान हों, बुद्धिमान हों, लोकसेवा हेतु सर्वस्वत्यागी और आज्ञापालक हों, जो मेरे विचारों को क्रियान्वित करने के लिए और इस प्रकार अपने तथा देश के व्यापक कल्याण के हेतु अपने प्राणों का उत्सर्ग कर सकें।
धर्म के बाद दूसरा स्थान अर्थ का है। अर्थ के बिना, धन के बिना संसार का कार्य चल ही नहीं सकता। जीवन की प्रगति का मूल आधार ही धन है। उद्योग-धंधे, व्यापार, कृषि आदि सभी कार्यों के निमित्त धन की आवश्यकता होती है। यही नहीं, धार्मिक कार्यों, प्रचार, अनुष्ठान आदि सभी धन के बल पर ही चलते हैं। अर्थोपार्जन मनुष्य का पवित्र कर्त्तव्य है। इसी से वह प्रकृति की विपुल संपदा को अपने और सारे समाज के लिए प्रयोग भी कर सकता है और उसे संवर्द्धित व संपुष्ट भी। पर इसके लिए धर्माचरण का ठोस आधार आवश्यक है। धर्म से विमुख होकर अर्थोपार्जन में संलग्न मनुष्य एक ओर तो प्राकृतिक संपदा का विवेकहीन दोहन करके संसार के पर्यावरण संतुलन को नष्ट करता है और दूसरी ओर अपने क्षणिक लाभ से दिग्भ्रमित होकर अपने व समाज के लिए अनेकानेक रोगों व कष्टों को जन्म देता है। यही सब तो आजकल हो रहा है। धर्म ने ही हमें यह मार्ग सुझाया है कि प्रकृति से, समाज से हमने जितना लिया है, अर्थोपार्जन करते हुए उससे अधिक वापस करने को सदैव प्रयासरत रहें। हमारी यज्ञ परंपरा भी इसी उत्कृष्ट भावना पर आधारित है।
धर्म और अर्थ के बाद काम को तीसरा स्थान दिया गया है। काम को धर्म और अर्थ दोनों पर ही आश्रित होना चाहिए। काम तो जीवन की प्राणशक्ति है। यदि मनुष्य में कामना ही नहीं होगी, कुछ करने व पाने की लालसा नहीं होगी, तो वह मृतप्राय हो जाएगा। प्रगति का चक्र ही रुक जाएगा। कामेच्छा से प्रेरित होकर ही मनुष्य तरह-तरह के आविष्कार करता है, भौतिक सुख के साधन तैयार करता है और इसी से बहुमुखी प्रगति के दर्शन होते हैं। परंतु हमारे धर्मग्रंथो ने 'तेन त्यक्तेन भुंजीथा' का मंत्र भी तो हमें दिया है। त्याग भाव से भोग करो। संसार में जो कुछ भी है समाज के लिए है। धर्मानुसार विवेकपूर्ण चिंतन के आधार पर ही उसका उपभोग करो। पहले त्याग करो, अन्य सभी का ध्यान रखो फिर स्वयं उपभोग करो। दूसरों को खिलाकर तब स्वयं खाओ। काम को, अपनी इच्छाओं व लालसाओं को सब से ऊपर समझकर उनके भार से समाज को जर्जर मत बनाओ अन्यथा अंततोगत्वा यह तुम्हारे ही संहार का कारण बनेगा।
|