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रश्मिरथी

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9840
आईएसबीएन :9781613012611

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रश्मिरथी का अर्थ होता है वह व्यक्ति, जिसका रथ रश्मि अर्थात सूर्य की किरणों का हो। इस काव्य में रश्मिरथी नाम कर्ण का है क्योंकि उसका चरित्र सूर्य के समान प्रकाशमान है


इसलिए, ध्येय में नहीं, धर्म तो
सदा निहित, साधन में है,
वह नहीं किसी भी प्रधान-कर्म,
हिंसा, विग्रह या रण में है।

तब भी जो नर चाहते, धर्म,
समझे मनुष्य संहारों को,
गूँथना चाहते वे, फूलों के
साथ तप्त अंगारों को।

हो जिसे धर्म से प्रेम कभी
वह कुत्सित कर्म करेगा क्या?
बर्बर, कराल, दंष्ट्री बन कर
मारेगा और मरेगा क्या?

पर, हाय, मनुज के भाग्य अभी
तक भी खोटे के खोटे हैं,
हम बढ़े बहुत बाहर, भीतर
लेकिन, छोटे के छोटे हैं।

संग्राम धर्मगुण का विशेष्य
किस तरह भला हो सकता है?
कैसे मनुष्य अंगारों से
अपना प्रदाह धो सकता है?

सर्पिणी-उदर से जो निकला,
पीयूष नहीं दे पायेगा,
निश्छल होकर संग्राम धर्म का
साथ न कभी निभायेगा।

मानेगा यह दंष्ट्री कराल
विषधर भुजंग किसका यन्त्रण?
पल-पल अति को कर धर्मसिक्त
नर कभी जीत पाया है रण?

जो ज़हर हमें बरबस उभार,
संग्राम-भूमि में लाता है,
सत्पथ से कर विचलित अधर्म
की ओर वही ले जाता है।


*


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