नई पुस्तकें >> रश्मिरथी रश्मिरथीरामधारी सिंह दिनकर
|
0 |
रश्मिरथी का अर्थ होता है वह व्यक्ति, जिसका रथ रश्मि अर्थात सूर्य की किरणों का हो। इस काव्य में रश्मिरथी नाम कर्ण का है क्योंकि उसका चरित्र सूर्य के समान प्रकाशमान है
थे जहाँ सहस्त्रों वर्ष पूर्व,
लगता है वहीं खड़े हैं हम।
है वृथा वर्ग, उन गुफावासियों से
कुछ बहुत बड़े हैं हम।
अनगढ़ पत्थर से लड़ो, लड़ो
किटकिटा नखों से, दाँतों से,
या लड़ो ऋक्ष के रोमगुच्छ-पूरित
वज्रीकृत हाथों से।
या चढ़ विमान पर नर्म मुट्ठियों से
गोलों की वृष्टि करो,
आ जाय लक्ष्य में जो कोई,
निष्ठुर हो सबके प्राण हरो।
ये तो साधन के भेद, किन्तु
भावों में तत्व नया क्या है?
क्या खुली प्रेम आँख अधिक?
भीतर कुछ बढ़ी दया क्या है?
झर गयी पूँछ, रोमान्त झरे,
पशुता का झरना बाकी है;
बाहर-बाहर तन सँवर चुका,
मन अभी सँवरना बाकी है।
देवत्व अल्प, पशुता अघोर,
तमतोम प्रचुर, परिमित आभा,
द्वापर के मन पर भी प्रसरित
थी यही, आज वाली, द्वाभा।
बस, इसी तरह, तब भी ऊपर
उठने को नर अकुलाता था,
पर पद-पद पर वासना-जाल में
उलझ-उलझ रह जाता था।
*
|