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			 नई पुस्तकें >> रश्मिरथी रश्मिरथीरामधारी सिंह दिनकर
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रश्मिरथी का अर्थ होता है वह व्यक्ति, जिसका रथ रश्मि अर्थात सूर्य की किरणों का हो। इस काव्य में रश्मिरथी नाम कर्ण का है क्योंकि उसका चरित्र सूर्य के समान प्रकाशमान है
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 ‘‘सोचो, जग होकर कुपित दण्ड क्या देता, 
 कुत्सा, कलंक के सिवा और क्या लेता?
 उड़ जाती रज-सी ग्लानि वायु में खुल कर,
 तुम हो जातीं परिपूत अनल में घुल कर।”
 
 ‘‘शायद, समाज टूटता वज्र बन तुम पर,
 शायद, घिरते दुख के कराल घन तुम पर।
 शायद, वियुक्त होना पड़ता परिजन से,
 शायद, चल देना पड़ता तुम्हें भवन से।”
 
 ‘‘पर, सह विपत्ति की मार अड़ी रहतीं तुम,
 जग के समक्ष निर्भीक खड़ी रहतीं तुम।
 पी सुधा जहर को देख नहीं घबरातीं,
 था किया प्रेम तो बढ़ कर मोल चुकातीं।”
 
 ‘‘भोगतीं राजसुख रह कर नहीं महल में,
 पालतीं खड़ी हो मुझे कहीं तरु-तल में।
 लूटतीं जगत् में देवि ! कीर्ति तुम भारी,
 सत्य ही, कहातीं सती सुचरिता नारी।”
 
 ‘‘मैं बड़े गर्व से चलता शीश उठाये,
 मन को समेट कर मन में नहीं चुराये।
 पाता न वस्तु क्या कर्ण पुरुष अवतारी,
 यदि उसे मिली होती शुचि गोद तुम्हारी? ”
 
 ‘‘पर, अब सब कुछ हो चुका, व्यर्थ रोना है,
 गत पर विलाप करना जीवन खोना है। 
 जो छूट चुका, कैसे उसको पाऊँगा?
 लौटूँगा कितनी दूर? कहाँ जाऊँगा? ”
 
 ‘‘छीना था जो सौभाग्य निदारुण होकर,
 देने आयी हो उसे आज तुम रोकर।
 गंगा का जल हो चुका, परन्तु, गरल है
 लेना-देना उसका अब, नहीं सरल है।”
 			
		  			
						
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