नई पुस्तकें >> रश्मिरथी रश्मिरथीरामधारी सिंह दिनकर
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रश्मिरथी का अर्थ होता है वह व्यक्ति, जिसका रथ रश्मि अर्थात सूर्य की किरणों का हो। इस काव्य में रश्मिरथी नाम कर्ण का है क्योंकि उसका चरित्र सूर्य के समान प्रकाशमान है
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‘‘पर पुत्र ! सोच अन्यथा न तू कुछ मन में,
यह भी होता है कभी-कभी जीवन में,
अब दौड़ वत्स ! गोदी में वापस आ तू,
आ गया निकट विध्वंस, न देर लगा तू।”
‘‘जा भूल द्वेष के ज़हर, क्रोध के विष को,
रे कर्ण ! समर में अब मारेगा किसको?
पाँचों पाण्डव हैं अनुज, बड़ा तू ही है
अग्रज बन रक्षा-हेतु खड़ा तू ही है।”
‘‘नेता बन, कर में सूत्र समर का ले तू,
अनुजों पर छत्र विशाल बाहु का दे तू,
संग्राम जीत, कर प्राप्त विजय अति भारी।
जयमुकुट पहन, फिर भोग सम्पदा सारी।”
‘‘यह नहीं किसी भी छल का आयोजन है,
रे पुत्र। सत्य ही मैंने किया कथन है।
विश्वास न हो तो शपथ कौन मैं खाऊँ?
किसको प्रमाण के लिए यहाँ बुलवाऊँ?”
‘‘वह देख, पश्चिमी तट के पास गगन में,
देवता दीपते जो कनकाभ वसन में,
जिनके प्रताप की किरण अजय अद्भुत है,
तू उन्हीं अंशुधर का प्रकाशमय सुत है।’’
रुक पृथा पोंछने लगी अश्रु अंचल से,
इतने में आयी गिरा गगन-मण्डल से,
‘‘कुन्ती का सारा कथन सत्य कर जानो,
माँ की आज्ञा बेटा ! अवश्य तुम मानो।’’
यह कह दिनेश चट उतर गये अम्बर से,
हो गये तिरोहित मिलकर किसी लहर से।
मानो, कुन्ती का भार भयानक पाकर,
वे चले गये दायित्व छोड़ घबराकर।
डूबते सूर्य को नमन निवेदित करके,
कुन्ती के पद की धूल शीश पर धरके।
राधेय बोलने लगा बड़े ही दुख से,
‘‘तुम मुझे पुत्र कहने आयीं किस मुख से? ”
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