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रश्मिरथी
रश्मिरथी
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2014 |
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ :
ई-पुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9840
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आईएसबीएन :9781613012611 |
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रश्मिरथी का अर्थ होता है वह व्यक्ति, जिसका रथ रश्मि अर्थात सूर्य की किरणों का हो। इस काव्य में रश्मिरथी नाम कर्ण का है क्योंकि उसका चरित्र सूर्य के समान प्रकाशमान है
"हे कृष्ण आप चुप ही रहिये,
इस पर न अधिक कुछ भी कहिये।
सुनना न चाहते तनिक श्रवण,
जिस माँ ने मेरा किया जनन।
वह नहीं नारि कुल्पाली थी,
सर्पिणी परम विकराली थी।
"पत्थर समान उसका हिय था,
सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था।
गोदी में आग लगा कर के,
मेरा कुल-वंश छिपा कर के।
दुश्मन का उसने काम किया,
माताओं को बदनाम किया।
"माँ का पय भी न पिया मैंने,
उलटे अभिशाप लिया मैंने।
वह तो यशस्विनी बनी रही,
सबकी भौं मुझ पर तनी रही।
कन्या वह रही अपरिणीता,
जो कुछ बीता, मुझ पर बीता।
"मैं जाति गोत्र से दीन, हीन,
राजाओं के सम्मुख मलीन।
जब रोज अनादर पाता था,
कह 'शूद्र' पुकारा जाता था।
पत्थर की छाती फटी नहीं,
कुन्ती तब भी तो कटी नहीं।
"मैं सूत-वंश में पलता था,
अपमान अनल में जलता था।
सब देख रही थी दृश्य पृथा,
माँ की ममता पर हुई वृथा।
छिप कर भी तो सुधि ले न सकी
छाया अंचल की दे न सकी।
"पा पाँच तनय फूली फूली,
दिन-रात बड़े सुख में भूली।
कुन्ती गौरव में चूर रही,
मुझ पतित पुत्र से दूर रही।
क्या हुआ कि अब अकुलाती है?
किस कारण मुझे बुलाती है?
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