| नई पुस्तकें >> रश्मिरथी रश्मिरथीरामधारी सिंह दिनकर
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रश्मिरथी का अर्थ होता है वह व्यक्ति, जिसका रथ रश्मि अर्थात सूर्य की किरणों का हो। इस काव्य में रश्मिरथी नाम कर्ण का है क्योंकि उसका चरित्र सूर्य के समान प्रकाशमान है
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 भगवान सभा को छोड़ चले, 
 करके रण गर्जन घोर चले।
 सामने कर्ण सकुचाया सा, 
 आ मिला चकित भरमाया सा।
 हरि बड़े प्रेम से कर धर कर, 
 ले चढ़े उसे अपने रथ पर।
 
 रथ चला परस्पर बात चली, 
 शम-दम की टेढी घात चली।
 शीतल हो हरि ने कहा, "हाय, 
 अब शेष नहीं कोई उपाय।
 हो विवश हमें धनु धरना है, 
 क्षत्रिय समूह को मरना है।
 
 "मैंने कितना कुछ कहा नहीं? 
 विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं? 
 पर, दुर्योधन मतवाला है, 
 कुछ नहीं समझने वाला है।
 चाहिए उसे बस रण केवल, 
 सारी धरती कि मरण केवल। 
 
 "हे वीर! तुम्हीं बोलो अकाम, 
 क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम? 
 वह भी कौरव को भारी है, 
 मति गई मूढ़ की मारी है।
 दुर्योधन को बोधूं कैसे? 
 इस रण को अवरोधूं कैसे? 
 
 "सोचो क्या दृश्य विकट होगा, 
 रण में जब काल प्रकट होगा? 
 बाहर शोणित की तप्त धार, 
 भीतर विधवाओं की पुकार।
 निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे, 
 बच्चे अनाथ चिल्लायेंगे।
 
 "चिंता है, मैं क्या और करूं? 
 शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ? 
 सब राह बंद मेरे जाने, 
 हाँ एक बात यदि तू माने।
 तो शान्ति नहीं जल सकती है, 
 समराग्नि अभी तल सकती है।
 			
		  			
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