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रश्मिरथी
रश्मिरथी
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2014 |
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ :
ई-पुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9840
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आईएसबीएन :9781613012611 |
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रश्मिरथी का अर्थ होता है वह व्यक्ति, जिसका रथ रश्मि अर्थात सूर्य की किरणों का हो। इस काव्य में रश्मिरथी नाम कर्ण का है क्योंकि उसका चरित्र सूर्य के समान प्रकाशमान है
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वसुधा का नेता कौन हुआ?
भूखण्ड-विजेता कौन हुआ?
अतुलित यश क्रेता कौन हुआ?
नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ?
जिसने न कभी आराम किया,
विघ्नों में रहकर नाम किया।
जब विघ्न सामने आते हैं,
सोते से हमें जगाते हैं।
मन को मरोड़ते हैं पल-पल,
तन को झँझोरते हैं पल-पल।
सत्पथ की ओर लगाकर ही,
जाते हैं हमें जगाकर ही।
वाटिका और वन एक नहीं,
आराम और रण एक नहीं।
वर्षा, अंधड़, आतप अखंड,
पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड।
वन में प्रसून तो खिलते हैं,
बागों में शाल न मिलते हैं।
कंकरियाँ जिनकी सेज सुघर,
छाया देता केवल अम्बर।
विपदाएँ दूध पिलाती हैं,
लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।
जो लाक्षा-गृह में जलते हैं,
वे ही शूरमा निकलते हैं।
बढ़कर विपत्तियों पर छा जा,
मेरे किशोर! मेरे ताजा!
जीवन का रस छन जाने दे,
तन को पत्थर बन जाने दे।
तू स्वयं तेज भयकारी है,
क्या कर सकती चिनगारी है?
वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम।
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।
*
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