| नई पुस्तकें >> रश्मिरथी रश्मिरथीरामधारी सिंह दिनकर
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रश्मिरथी का अर्थ होता है वह व्यक्ति, जिसका रथ रश्मि अर्थात सूर्य की किरणों का हो। इस काव्य में रश्मिरथी नाम कर्ण का है क्योंकि उसका चरित्र सूर्य के समान प्रकाशमान है
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 किन्तु, पाँव के हिलते ही गुरुवर की नींद उचट जाती, 
 सहम गयी यह सोच कर्ण की भक्तिपूर्ण विह्वल छाती। 
 सोचा, उसने, अतः, कीट यह पिये रक्त, पीने दूँगा, 
 गुरु की कच्ची नींद तोड़ने का, पर पाप नहीं लूँगा। 
 
 बैठा रहा अचल आसन से कर्ण बहुत मन को मारे, 
 आह निकाले बिना, शिला-सी सहनशीलता को धारे। 
 किन्तु, लहू की गर्म धार जो सहसा आन लगी तन में, 
 परशुराम जग पड़े, रक्त को देख हुए विस्मित मन में। 
 
 कर्ण झपट कर उठा इंगितों में गुरु से आज्ञा लेकर, 
 बाहर किया कीट को उसने क्षत में से उँगली देकर। 
 परशुराम बोले- 'शिव! शिव! तूने यह की मूर्खता बड़ी, 
 सहता रहा अचल, जाने कब से, ऐसी वेदना कड़ी।' 
 
 तनिक लजाकर कहा कर्ण ने, 'नहीं अधिक पीड़ा मुझको, 
 महाराज, क्या कर सकता है यह छोटा कीड़ा मुझको? 
 मैंने सोचा, हिला-डुला तो वृथा आप जग जायेंगे, 
 क्षण भर को विश्राम मिला जो नाहक उसे गँवायेंगे। 
 
 निश्चल बैठा रहा, सोच, यह कीट स्वयं उड़ जायेगा, 
 छोटा-सा यह जीव मुझे कितनी पीड़ा पहुँचायेगा? 
 पर, यह तो भीतर धँसता ही गया, मुझे हैरान किया, 
 लज्जित हूँ इसीलिए कि सब-कुछ स्वयं आपने देख लिया।' 
 
 परशुराम गंभीर हो गये सोच न जाने क्या मन में, 
 फिर सहसा क्रोधाग्नि भयानक भभक उठी उनके तन में। 
 दाँत पीस, आँखें तरेरकर बोले- 'कौन छली है तू? 
 ब्राह्मण है या और किसी अभिजन का पुत्र बली है तू?
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