| नई पुस्तकें >> रश्मिरथी रश्मिरथीरामधारी सिंह दिनकर
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रश्मिरथी का अर्थ होता है वह व्यक्ति, जिसका रथ रश्मि अर्थात सूर्य की किरणों का हो। इस काव्य में रश्मिरथी नाम कर्ण का है क्योंकि उसका चरित्र सूर्य के समान प्रकाशमान है
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 श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है, 
 युद्ध-शिविर या तपोभूमि यह, समझ नहीं कुछ पड़ता है। 
 हवन-कुण्ड जिसका यह उसके ही क्या हैं ये धनुष-कुठार? 
 जिस मुनि की यह स्रुवा, उसी की कैसे हो सकती तलवार? 
 
 आयी है वीरता तपोवन में क्या पुण्य कमाने को? 
 या संन्यास साधना में है दैहिक शक्ति जगाने को? 
 मन ने तन का सिद्ध-यन्त्र अथवा शस्त्रों में पाया है? 
 या कि वीर कोई योगी से युक्ति सीखने आया है? 
 
 परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार, 
 क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार। 
 तप से मनुज दिव्य बनता है, षड् विकार से लड़ता है, 
 तन की समर-भूमि में लेकिन, काम खड्ग ही करता है। 
 
 किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवाला? 
 एक साथ यज्ञाग्नि और असि की पूजा करनेवाला? 
 कहता है इतिहास, जगत् में हुआ एक ही नर ऐसा, 
 रण में कुटिल काल-सम क्रोधी तप में महासूर्य-जैसा! 
 
 मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल, 
 शाप और शर, दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्बल। 
 यह कुटीर है उसी महामुनि परशुराम बलशाली का, 
 भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का। 
 
 हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर, 
 सोये हैं तरुवर के नीचे, आश्रम से किञ्चित् हटकर। 
 पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है, 
 पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है।
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