नई पुस्तकें >> रश्मिरथी रश्मिरथीरामधारी सिंह दिनकर
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रश्मिरथी का अर्थ होता है वह व्यक्ति, जिसका रथ रश्मि अर्थात सूर्य की किरणों का हो। इस काव्य में रश्मिरथी नाम कर्ण का है क्योंकि उसका चरित्र सूर्य के समान प्रकाशमान है
लगाया जोर अश्वों ने न थोड़ा,
नहीं लेकिन, मही ने चक्र छोडा।
वृथा साधन हुए जब सारथी के,
कहा लाचार हो उसने रथी से।
''बड़ी राधेय ! अद्भुत बात है यह।
किसी दु:शक्ति का ही घात है यह।
जरा-सी कीच में स्यन्दन फंसा है,
मगर, रथ-चक्र कुछ ऐसा धंसा है।''
''निकाले से निकलता ही नहीं है,
हमारा जोर चलता ही नहीं है,
जरा तुम भी इसे झकझोर देखो,
लगा अपनी भुजा का जोर देखो।''
हँसा राधेय कर कुछ याद मन में,
कहा, ''हां सत्य ही, सारे भुवन में,
विलक्षण बात मेरे ही लिए है,
नियति का घात मेरे ही लिए है।”
''मगर, है ठीक, किस्मत ही फंसे जब,
धरा ही कर्ण का स्यन्दन ग्रसे जब,
सिवा राधेय के पौरुष प्रबल से,
निकाले कौन उसको बाहुबल से?''
उछलकर कर्ण स्यन्दन से उतर कर,
फंसे रथ-चक्र को भुज-बीच भर कर,
लगा ऊपर उठाने जोर करके,
कभी सीधा, कभी झकझोर करके।
मही डोली, सलिल-आगार डोला,
भुजा के जोर से संसार डोला,
न डोला, किन्तु, जो चक्का फंसा था,
चला वह जा रहा नीचे धंसा था।
विपद में कर्ण को यों ग्रस्त पाकर,
शरासनहीन, अस्त-व्यस्त पाकर,
जगा कर पार्थ को भगवान् बोले-
''खड़ा है देखता क्या मौन, भोले?''
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