नई पुस्तकें >> रश्मिरथी रश्मिरथीरामधारी सिंह दिनकर
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रश्मिरथी का अर्थ होता है वह व्यक्ति, जिसका रथ रश्मि अर्थात सूर्य की किरणों का हो। इस काव्य में रश्मिरथी नाम कर्ण का है क्योंकि उसका चरित्र सूर्य के समान प्रकाशमान है
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रथ सजा, भेरियां घमक उठीं, गहगहा उठा अम्बर विशाल,
कूदा स्यन्दन पर गरज कर्ण ज्यों उठे गरज क्रोधान्ध काल।
बज उठे रोर कर पटह-कम्बु, उल्लसित वीर कर उठे हूह,
उच्छल सागर-सा चला कर्ण को लिये क्षुब्ध सैनिक समूह।
अंगार-वृष्टि पा धधक उठे जिस तरह शुष्क कानन का तृण,
सकता न रोक शस्त्री की गति पुञ्जित जैसे नवनीत मसृण।
यम के समक्ष जिस तरह नहीं चलपाता बद्ध मनुज का वश,
हो गयी पाण्डवों की सेना त्योंही बाणों से विद्ध, विवश।
भागने लगे नरवीर छोड वह दिशा जिधर भी झुका कर्ण,
भागे जिस तरह लवा का दल सामने देख रोषण सुपर्ण !
"रण में क्यों आये आज?" लोग मन-ही-मन में पछताते थे,
दूर से देखकर भी उसको, भय से सहमे सब जाते थे।
काटता हुआ रण-विपिन क्षुब्ध, राधेय गरजता था क्षण-क्षण।
सुन-सुन निनादकी धमक शत्रुका, व्यूह लरजताथा क्षण-क्षण।
अरि की सेना को विकल देख, बढ चला और कुछ समुत्साह;
कुछ और समुद्वेलित होकर, उमड़ा भुज का सागर अथाह।
गरजा अशंक हो कर्ण, “शल्य ! देखो कि आज क्या करता हूं,
कौन्तेय-कृष्ण, दोनों को ही, जीवित किस तरह पकड़ता हूं।
बस, आज शामतक यहीं सुयोधनका जय-तिलक सजा करके,
लौटेंगे हम, दुन्दुभि अवश्य जय की, रण-बीच बजा करके।
इतने में कुटिल नियति-प्रेरित पड गये सामने धर्मराज,
टूटा कृतान्त-सा कर्ण, कोक पर पड़े टूट जिस तरह बाज।
लेकिन, दोनों का विषम यु्द्ध, क्षण भर भी नहीं ठहर पाया,
सह सकी न गहरीचोट, युधिष्ठिर की मुनि-कल्प, मृदुल काया।
भागे वे रण को छोड़, कर्ण ने झपट दौड़कर गहा ग्रीव,
कौतुक से बोला, “महाराज ! तुम तो निकले कोमल अतीव।
हां, भीरु नहीं, कोमल कहकर ही, जान बचाये देता हूं।
आगे की खातिर एक युक्ति भी सरल बताये देता हूं।
“हैं विप्र आप, सेविये धर्म, तरु-तले कहीं, निर्जन वन में,
क्या काम साधुओं का, कहिये, इस महाघोर, घातक रण में?
मत कभी क्षात्रता के धोखे, रण का प्रदाह झेला करिये,
जाइये, नहीं फिर कभी गरुड़ की झपटों से खेला करिये।“
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