नई पुस्तकें >> प्रेमी का उपहार प्रेमी का उपहाररबीन्द्रनाथ टैगोर
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रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गद्य-गीतों के संग्रह ‘लवर्स गिफ्ट’ का सरस हिन्दी भावानुवाद
दूसरी माला बना दूँगा, पर प्रतीक्षा तो करो न, नटखट!
अन्तिम विदाई के समय आकाश में नीचे लटके बादलों की भाँति मैं कुछ अस्थिर-सा था उस समय मेरे पास केवल इतना ही समय था, कि एक लाल कलावा, अपने कंपित हाथों से उसकी कलाई में बाँध दूँ। खिले हुए महुआ-पुष्पों को देखकर जी में आ ही जाता है कि चुपचाप कहीं उन्हीं के समीप घास में बैठ जाऊँ और यह सोचा करूँ–‘क्या तुमने अपनी नरम कलाई में मेरा ‘लाल डोरा’ अब भी बाँध रखा है।
तुम उस तंग-मार्ग से निकल कर गईं। तुम्हारे जाने से सन के खिले हुए खेत बिखर गये। उस समय मैंने देखा कि मेरी जल्दी में बनी माला ढीली होकर तुम्हारे केशों से लटक रही है। पर तुम इतनी अटपटी क्यों हो गई हो? तुमने इतनी भी प्रतीक्षा न की कि दूसरी उषा के आने तक मैं तुम्हारे लिए फिर से नये-नये पुष्प संचित करूँ और एक दूसरी माला बनाकर अन्तिम भेंट के रूप में तुम्हें दे दूँ। मैं विस्मित हूँ यह जानकर कि यदि तुम्हें ध्यान न रहा तो तुम अवश्य ही मेरी भेंट की हुई माला को गिरा दोगी अपने केशों से।
क्या तुम्हें याद है–मैं निशि-दिन तुम्हें गीत सुनाया करता था? तुम्हें अब उन दिनों की स्मृति क्यों होगी? वह तुम्हीं तो हो, जो मेरे अन्तिम गीत को, जाते समय अपने कंठ में रख ले गई थीं। तुम तो बड़ी वैसी हो न! तुम एक बार भी मेरे उस अनसुने गीतों को सुनने के लिए नहीं रुकीं–हाँ उस गीत को सुनने के लिए जो मैंने केवल तुम्हारे लिए बनाया था और जिसे मैं तुम्हें सदैव ही सुनाना चाहता था।
मैं आश्चर्य-चकित हो तुमसे पूछता हूँ क्या तुम उस गीत से थक गई हो–जिसे तुम अपनी ही इच्छा से इस हरे खेत को पार करते समय, गनगुनाती रहती हो?
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