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प्रेमी का उपहार

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9839
आईएसबीएन :9781613011799

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रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गद्य-गीतों के संग्रह ‘लवर्स गिफ्ट’ का सरस हिन्दी भावानुवाद

छोटी-छोटी बातों पर जहाँ उत्पात होता है वहाँ मेरे गीतों का मूल्य नहीं

मेरे गीतो! तुम्हारे लिए बजार कहाँ है? क्या वह बाज़ार वहाँ है जहाँ शिक्षित समाज ग्रीष्म की शीतल पवन को सूँघनी से दूषित कर देता है, जहाँ मानव समाज केवल यह जानने के लिए कि तेल का आधार पात्र है अथवा पात्र का आधार तेल है–विवादयुक्त हो उठता है, जहाँ पीली हस्तलिखित प्रतियों पर जीवन की क्षुद्रता भौं सिकोड़ती है?–तब ऐसे समय ही मेरा गीत अनायास कराह उठता है–अरे नहीं! अरे नहीं! अरे नहीं!

मेरे गीत! तुम्हारे लिए बाजार कहाँ है? क्या वहाँ है जहाँ भाग्यशाली पुरुष गौरव के शिखर पर पहुँचकर गर्वयुक्त हो जाता है, महलों में रहने पर अपनी पुस्तकों को चर्म में लपेट कर ताक में रख देता है, पुस्तकों पर सुनहरी चित्रकारी कर–उन्हें दासों से झड़वाता है और उस पुस्तक के अछूत एवं कौमार्य पन्नों को एक ऐसे देवता को समर्पित कर देता है जिसे समझना बड़ा कठिन है?–ऐसी बात सुनकर तो मेरे गीत हांफने लगते हैं और कहने लगते हैं–अरे नहीं! नहीं, नहीं!

मेरे गीतों! कहाँ तुम्हारा मूल्य लग सकता है? क्या उस स्थान पर तुम्हारा मूल्यांकन हो सकेगा जहाँ युवा-विद्यार्थी पुस्तक पढ़ने बैठते हैं पर सिर पुस्तकों पर रख लेते हैं और यौवन के मादक स्वप्न-लोक में विचरने लगते हैं? क्या वहाँ मेरे गीतों का मूल्यांकन होगा जहाँ विद्यार्थी अपनी गद्य पुस्तकों को तो मेज के एक कोने पर फेंक देते हैं पर कविता-कामिनि को सदैव अपने हृदय में छिपाये रहते हैं? मेरे गीत! क्या ऐसी धूलि-धूसरित अव्यवस्था में तुम आँख-मिचौनी खेलना पसन्द करोगे?

मेरे गीतो! तुम कहाँ बिक सकते हो? क्या तुम वहाँ बिकना पसंद करोगे जहाँ वधु केवल गृह-कार्य में व्यस्त रहती है अथवा जहाँ गृह-कर्मों से शीघ्र निवृत हो नवेली अपने सुगंधसुक्त केशों सहित शयन-कक्ष की ओर दौड़ती है और तकिये के नीचे से किसी ‘प्रणय-पुस्तक’ को निकाल कर पढ़ने लगती है–वास्तव में ऐसी पुस्तक जो यदि किसी शिशु के हाथ में पड़ जाए तो अस्तव्यस्त हो जाए। अतः ऐसे प्रश्नों के उत्तर में मेरा गीत वेदनामय हो एक  दुःख की साँस खींचता है और किसी अनिश्चित इच्छा से प्रेरित हो काँपने लगता है।

मेरे गीत! तेरे इच्छुक कहाँ मिल सकतें हैं? क्या वे वहाँ मिल सकते हैं जहाँ समाज चिड़ियों के छोटे-छोटे गीतों को भी सुनता है, जहाँ झरनों की झरझर में पूर्ण ज्ञान और विवेक की बातें सुनाई पड़ती है, जहाँ संसार की वीणा के तार अपने समस्त संगीत को प्रेमी-हृदयों पर न्योछावर कर देते हैं? हाँ, मैं सच कहता हूँ—ऐसे प्रश्नों के उत्तर में मेरा गीत हँस देता है और कहता है–

‘हाँ! हाँ! हाँ!’

* * *

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