नई पुस्तकें >> प्रेमी का उपहार प्रेमी का उपहाररबीन्द्रनाथ टैगोर
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रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गद्य-गीतों के संग्रह ‘लवर्स गिफ्ट’ का सरस हिन्दी भावानुवाद
जो जीवन सुख का एक क्षण वही अनन्त दुःख का एक युग है
‘‘पथिक तुम कहाँ जा रहे हो?’’
‘‘उषा की लालिमा के बिखरने पर सागर में नहाने जा रहा हूँ और उस पथ से जा रहा हूँ जिसके दोनों ओर वृक्ष लगे हुए हैं।’’
‘‘यात्री क्या तुम बता सकोगे-सागर कहाँ है?’’
‘‘सागर वहाँ है जहाँ नदियों ने पथ का अन्त किया है, वहाँ है जहाँ निशा की उषा, प्रातः की अरुणिमा में खिल उठती है, वहाँ है–जहाँ दिवस संध्या के सम्मुख नत्-मस्तक हो जाता है।’’
‘‘पथिक क्या बता सकोगे तुम्हारे साथ कितने पथिक और हैं?’’
‘‘उन्हें कैसे गिन लेता?–यह मेरी समझ में नहीं आता? वे सारी रात अपने दिये जलाये यात्रा करते रहे हैं और अब दिन में वे सारे दिन भूमि और जल के द्वारा अपने गीत गुन-गुनाते रहते हैं।’’
‘‘राही तुम्हारा सागर कितनी दूर है?’’
‘‘वह कितनी दूर है–यह तो हम सब ही पूछते हैं? किन्तु हाँ, जब हम निस्तब्ध हो जाते हैं तब उसकी उत्तेजक तरंगों की गड़गड़ाहट हमें आकाश तक उड़ती हुई प्रतीत होती है हमें ऐसा आभास होता है कि वह सागर हमारे निकट ही है किन्तु वस्तुतः वह बहुत दूर हैं।’’
‘‘राही सूर्य इतनी तीव्रता से क्यों पिघल रहा है?’’
‘‘–इसलिये कि हमारी यात्रा अनन्त और दुःखपूर्ण है।’’
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