नई पुस्तकें >> प्रेमी का उपहार प्रेमी का उपहाररबीन्द्रनाथ टैगोर
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रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गद्य-गीतों के संग्रह ‘लवर्स गिफ्ट’ का सरस हिन्दी भावानुवाद
अरे! तुम तो मुझ भिखारी से भी भिक्षा माँगते हो
मार्ग पर खड़े छायादार वृक्षों की छाया के नीचे ही मेरा निवास-स्थान था। वहीं पड़ा रहकर सूर्य रश्मियों की आभा से आनन्दित मार्ग के परे जब कुछ निहारने लगता तो पड़ोसियों के उद्यान मुझे दिखाई पड़ने लगते थे।
–वहीं पड़ा रह कर मैंने अनुभव किया कि मैं भूखा हूँ। अतः इसी पीड़ा को लेकर मैं एक द्वार से दूसरे द्वार पर भटकने लगा।
अपने अनन्त भण्डार से जितनी ही अधिक अधिक भिक्षा उन्होंने मुझे दी, उतनी ही अधिकता से पीड़ित होकर मैंने यह जाना कि मुझ भिखारी का कटोरा तो फिर भी खाली रह गया।
एकाएक, एक दिन प्रभात के समय किसी ने मेरा द्वार खोला। मैं अपनी निद्रा को त्याग उठ बैठा और देखा तो–इस प्रकार चिल्ला उठा–‘अरे तुम भी मेरे पास भिक्षा लेने आये हो।’
बस तभी एक क्षण में ही निराश होकर, मैंने अपने हृदय को खोलने के लिए उसके ढक्कन को तोड़ दिया और आश्चर्य चकित हो यह खोजने लगा कि–कदाचित्–कहीं मेरे हृदय में कोई धन छिपकर तो नहीं बैठ गया है।
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