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मुल्ला नसीरुद्दीन के चुटकुले

विवेक सिंह

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :46
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9836
आईएसबीएन :9781613012741

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मुल्ला नसीरूद्दीन न केवल हँसोड़ था, बल्कि वह अच्छा हकीम भी था और सामान्य लोगों के सुख-दुःख में सदा भागीदार भी बनता था, इसलिए वह अत्यन्त लोकप्रिय था।

38

एक दिन कहीं जाते हुए मुल्ला को रास्ते में उसके गुरु मौलवी साहब मिल गये। दुआ-सलाम के बाद मुल्ला ने सकुचाते हुए मौलवी से कहा-'मौलवी साहब, कोई ऐसा ट्यूटर तो बताना, जो दो-तीन बच्चों को पढ़ा दिया करे।'

मौलवी साहब उन दिनों बेकार थे। मुल्ला के मुँह से यह सुना तो मन ही मन खुश होकर बोले-'तुम्हें मुझसे अच्छा ट्यूटर कौन मिलेगा, मैं खुद ही पढ़ा दिया करूँगा।'

'बहुत अच्छा, आपसे अच्छा गुरु भला कहाँ मिल सकता है? पर एक बात तो बताइये, सब बच्चों के लिए सौ रुपये माहवार ठीक रहेगा न?' नसीरूद्दीन ने नजाकत से कहा।

मौलवी साहब के लिए सौ रुपये तो बहुत बड़ी नियामत थी। उनका मन खुशी से भर उठा। वे बोले-'अरे नसीरूद्दीन, तुम मेरे बच्चे सरीखे हो, गैर थोड़े हो, चाहो सो दे देना। मैं कब से आ जाया करूँ?'

यह सुनकर मुल्ला ने मन ही मन कुछ हिसाब-किताब लगाया फिर बोला-'मौलवी साहब, मेरा सौदा आप से पक्का हो गया है, मगर आपको कुछ इंतजार करना पड़ेगा।

'कोई बात नहीं, मैं हर वक्त तैयार हूँ, वैसे अंदाजन कितने दिनों के बाद...?

'दिनों का हिसाब लगाने में तो देर होगी, हाँ आज से ठीक बारह साल बाद आप आना शुरू कर दें।'

मुल्ला के मुँह से यह सुनते ही मौलवी साहब के पैरों तले से जमीन खिसक गई-वह चौंके-'क्या?'

'हाँ मौलवी साहब, अभी तो मेरी शादी भी नहीं हुई है... फिर दो-तीन बच्चों का सवाल भी है, इतना वक्त तो कम-से-कम चाहिए ही।' बड़े भोलेपन से मुल्ला ने कहा।

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