आचार्य श्रीराम शर्मा >> मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदलेश्रीराम शर्मा आचार्य
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समय सदा एक जैसा नहीं रहता। वह बदलता एवं आगे बढ़ता जाता है, तो उसके अनुसार नए नियम-निर्धारण भी करने पड़ते हैं।
यह समझने-समझाने के अतिरिक्त और किसी प्रकार बात बनती ही नहीं कि अपनी सोच बदल ली जाए, तो अत्यधिक व्यथित-व्याकुल किए रहने वाली समस्या चुटकी बजाने की तरह मिनटों में हल हो सकती है। रंगीन चश्मा पहन लेने पर सारा संसार रंगीला दीख पड़े, तो उस गड़बड़ी से एक ही प्रकार निपटा जा सकता है कि चश्मा उतार दिया जाए और जो वस्तु जैसी है, उसे उसी रूप में देख कर संतोष कर लिया जाए। अपने निजी शरीर से लेकर, संसार भर में बिखरे अनेकानेक प्राणियों और पदार्थों तक प्रकृति का सुविस्तृत वैभव बिखरा पड़ा है। इसमें अपना अधिकार मात्र उतने पर है जितने से कि निर्वाह क्रम चलता रहे। इसके अतिरिक्त और जो कुछ बचा रहता है, वह इस सृष्टि के निवासी व अन्यान्य जड़ चेतन घटकों के लिए है। सब अपनी अपनी भागीदारी बरतें और इतने से ही सतुष्ट रहें, तो अच्छे बच्चों की तरह सभी अपने अरमान लेकर 'हँसते-हँसाते, खेलते-खिलाते' रह सकते हैं। पर जब वे एक दूसरे का हक छीनने के लिए आक्रामक उद्दण्डता अपनाते हैं तो पारस्परिक सद्भावना तो गँवाते ही हैं, साथ ही उस हुड़दंग के लिए अभिभावकों की चपतें भी खाते हैं।
ऐसे बुरे बच्चे कम से कम हमें तो नहीं ही होना चाहिए, जिनके संबंध में सर्वत्र समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादुरी जैसे व्यवहार की अपेक्षा की जाती है, साथ ही उपलब्धियों के न्यायोचित वितरण, विभाजन एवं सदुपयोग की आशा की जाती है।
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