आचार्य श्रीराम शर्मा >> मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदलेश्रीराम शर्मा आचार्य
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समय सदा एक जैसा नहीं रहता। वह बदलता एवं आगे बढ़ता जाता है, तो उसके अनुसार नए नियम-निर्धारण भी करने पड़ते हैं।
इस द्वंद्व के चलते देवता तो किसी प्रकार संतुष्ट भी हो सकें और परस्पर एक सीमा तक तालमेल भी बिठा सकें, पर दैत्य सर्वदा विग्रह में ही उलझे रह गए। वे न केवल देव पक्ष से जूझते रहे, वरन् आपा-धापी, छीना-झपटी में उन्हें अपने स्तर के लोगों से भी आए दिन निपटना पडा। अनीति के आधार पर हस्तगत हुई उपलब्धियाँ अपनी बिरादरी वालों को भी चैन से नहीं बैठने देती। उनके बीच, लूट में अधिक हिस्सा पाने की प्रवृत्ति निरंतर विग्रह भड़काती रहती है।
अच्छा होता, कहीं ऐसी समझ उपज सकी होती कि आवश्यकता के अनुरूप साधन इस सुविस्तृत प्रकृति कलेवर में पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हैं, तब उन्हें मिल बाँटकर काम चलाने की समझदारी क्यों न अपनाई जाए? पर दुर्बुद्धि न जाने क्यों तथाकथित समझदारों के सिर ताबड़तोड़ आक्रमण करती है, फलत: अभावग्रस्त समझे जाने वालों की तुलना में समर्थ, सशक्त ही अधिक घाटे में रहते हैं। इतना ही नहीं, जब वे उन्मादी हाथियों की तरह लड़ते हैं, तो अपने क्षेत्र की सुविस्तृत हरियाली को रौंद-दबोच कर तोड़-मरोड़ कर रख देते हैं। स्थिति ऐसी बना देते हैं, जिसमें वे स्वयं अपयश के भागी बनते हैं, आत्म प्रताड़ना की आग में जलते हैं और साथ ही वातावरण को विपन्न बनाकर रख देते हैं। न चैन से बैठते हैं और न दूसरों को बैठने देते हैं।
मिल बाँटकर खाने योग्य सुविधा-साधन, प्रकृति सदा से उत्पन्न करती रही है और भविष्य में भी उसकी यही रीति नीति बनी रहेगी पर उस हविश को क्या किया जाए, जो संसार भर का सब कुछ अपने ही छोटे से कटोरे में बटोर लेने के लिए बेतरह आकुल रहती है, अधिक और अधिक और अधिक की रट ही लगाए रहती है। यद्यपि यह चंद्रमा, आकाश से उतर कर उसी के घरौंदे में खेलते रहने के लिए न कभी तैयार हुआ और न कभी भविष्य में वैसा करने के लिए सहमत होते दीख पड़ता है। ऐसी दशा में अबोध बालक कभी स्वयं हैरान हो, कभी घरवालों पर खीझे और कभी आसमान तक लातें चलाकर चंदमा को धराशायी बनाने के लिए रौद रूप धारण करे, तो क्या किया जाए?
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