आचार्य श्रीराम शर्मा >> मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदलेश्रीराम शर्मा आचार्य
|
0 |
समय सदा एक जैसा नहीं रहता। वह बदलता एवं आगे बढ़ता जाता है, तो उसके अनुसार नए नियम-निर्धारण भी करने पड़ते हैं।
विकास क्रम में ऐसे बदलाव अनायास ही प्रस्तुत कर दिए गए हैं। इस परिवर्तन क्रम को रोका नहीं जा सकता। जो पुरानी प्रथाओं पर ही अड़ा रहेगा, उसे न केवल घाटा ही घाटा उठाना पड़ेगा, वरन् उपहासास्पद भी बनना पड़ेगा।
मान्यताएँ, विचारणाएँ, निर्धारण और क्रियाकलाप आदि भी समय के परिवर्तन से प्रभावित हुए बिना रहते नहीं। उनकी सर्वथा उपेक्षा नहीं की जा सकती। धर्मशास्त्र भी समय की मर्यादाओं में बँधे रहे हैं और उनमें प्रस्तुत बदलाव के आधार पर परिवर्तन होते रहे हैं। स्मृतियाँ और सूत्र ग्रंथ भी भिन्न मित्र ऋषियों ने अपने अपने समय के अनुसार, नए सिरे से रखने की आवश्यकता समझी और वह सुधार ही जनजीवन में मान्यता प्राप्त करता रहा। इसका कारण उन निर्माताओं में परस्पर विवाद या विग्रह होना नहीं है, वरन् यह है कि बदलती परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए धर्म प्रचलन के स्वरूप मंक भी भारी हेर फेर किया गया।
प्राचीनकाल में जमीन में गड्ढा खोदकर गुफाएँ विनिर्मित कर ली जाती थीं। बाद में कुटिया बनाना अधिक सरल और सुविधाजनक लगा। इसके बाद अब तो भूमि संबंधी कठिनाई को देखते हुए, आगे बढ़कर सीमेंट ओर लोहे के सहारे भवन निर्माण का प्रयोग निरंतर बढ़ता जा रहा है। लकड़ी और गोबर से ईंधन की आवश्यकता पूरी करने की प्रथा पिछले दिनों रही है, पर उनका पर्याप्त मात्रा में न मिलना, इस प्रयास को तेजी से कार्यान्वित कर रहा है कि गोबर गैस या खनिज गैस से काम लिया जाए। जहाँ इफरात है, वहाँ बिजली से भी ईंधन का काम लिया जा रहा है। खनिज तेल भी किसी प्रकार उस आवश्यकता की पूर्ति कर रहे हैं। अब तो सूर्य की धूप भी ईंधन की जगह प्रयुक्त होने लगी है। इन परिवर्तनों में आवश्यकता के अनुरूप आविष्कार होते चलने की उक्ति ही सार्थक सिद्ध होती है।
|