आचार्य श्रीराम शर्मा >> मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदलेश्रीराम शर्मा आचार्य
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समय सदा एक जैसा नहीं रहता। वह बदलता एवं आगे बढ़ता जाता है, तो उसके अनुसार नए नियम-निर्धारण भी करने पड़ते हैं।
दुरुपयोग की तरह निष्कियता-निरुत्साह भी अनिष्टकारक है। आलसी-प्रमादी ही आमतौर से दरिद्र पाए जाते हैं। उत्साह का अभाव ही उन्हें शिक्षा से वंचित रखता है। सभ्यता के अनुशासन को अभ्यास में न उतार पाने के कारण ही लोग अनगढ़ और पिछड़ी स्थिति में पड़े रहते हैं। यदि उनके इन दोष दुर्गुणों को हटाया घटाया जा सके, तो इतने भर से निजी प्रतिभा में नया उभार आ सकता है और उस दरिद्रता से छुटकारा मिल सकता है, जिसके कारण कि आए दिन अभावों, असंतोषों और अपमानों का दबाव सहना पड़ता है। कहने को तो यों भी कहा जाता है कि अभावग्रस्त परिस्थितियों के कारण मनुष्य को त्रास सहने पड़ते हैं, पर गंभीरता के साथ निरीक्षण-परीक्षण करने पर तो दूसरी ही बात सामने आती है। व्यक्तित्व की गहराई में घुसी हुई अवांछनीयताओं के कारण ही मनुष्य गई-गुजरी परिस्थितियों में पड़ा रहता है। श्रमिकों में कितनी ही अच्छी कमाई करते हुए भी देखे जाते हैं, पर उनकी आदत में नशेबाजी जुआ, आवारागर्दी जैसी कितनी ही बुरी आदतें जुड़ जाती हैं। जो कमाते हैं, उसे गँवा देते हैं और अभावों की शिकायत करते हुए ही जिंदगी गुजारते हैं। उनका परिवार भी इसी अनौचित्य की चक्की में पिसता और बरबाद होता रहता है। बात श्रमिकों तक ही सीमित नहीं है, वह धनिकों के ऊपर और भी अधिक स्पष्ट रूप से लागू होती है। दुरुपयोग उन्हें भी दुर्गुणी, दुर्व्यसनी बनाता ही है। अपव्यय के रहते किसी के पास खुशहाली रह सकेगी या उसके माध्यम से उपयोगी प्रगति संभव हो सकेगी, इसकी आशा अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
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