ई-पुस्तकें >> कुमुदिनी (हरयाणवी लोक कथाएँ) कुमुदिनी (हरयाणवी लोक कथाएँ)नवलपाल प्रभाकर
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ये बाल-कथाएँ जीव-जन्तुओं और बालकों के भविष्य को नजर में रखते हुए लिखी गई है
स्कूल में बार-बार रवि छुट्टी के लिए समय देखता और बेसब्री से छुट्टी का इंतजार करने लगा। आज का दिन मानो दिन न होकर रवि के लिए सप्ताह, महीना वर्ष के समान हो गया था। बार-बार उसकी नजर घंटी की तरफ जाती और समय खत्म हुआ। टन-टन-टन-टन, छुट्टी- छुट्टी- छुट्टी- छुट्टी। थैला उठाया और घर की तरफ दौड़ पड़ा रवि।
आज मेरे जामुन के पेड़ में छः-सात पत्तियां खिल गई होंगी। मैं उन्हें देखूंगा और उसमें पानी डालूंगा फिर वह बड़ा होगा। फल की कोई चिंता नहीं है चाहे लगे या ना लगें बस उसकी छाया में बैठकर पढ़ा करूंगा। उसके ऊपर खेला करूंगा। यही सोचते हुए रवि के कदम घर की तरफ तेजी से बढ़ रहे थे। आज तो घर भी मानो उसके लिए कोसों दूर हो गया था, मगर जल्दी ही उसने यह सफर लम्बा होने के बावजूद भी तय कर लिया।
घर आते ही एक तरफ थैला रखा और झट से अपनी बगिया में जामुन के पेड़ देखने को दौड़ पड़ा। मगर यह क्या, बगिया में जामुन के पेड़ ना देखकर अचानक उसके पैरों के नीचे के जमीन खिसक गई और चक्कर आने लगे। धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा। कुछ देर बाद उसे होश आया तो अपने आपको बिस्तर पर पाया।
मेरे जामुन के पेड़ किसने तोड़े हैं - रोते हुए रवि ने मां से पूछा।
बेटा उसे तो बकरी खा गई है। हम घर पर नहीं थे। वो जाने कब घर के अन्दर घुसी और कब गई। हमें तो उसके बारे में कुछ भी नहीं पता लगा - मां ने सफाई में कहा।
रवि चुप हो गया, मगर जब भी उसे वह बगिया में जामुन का पेड़ याद आता है तो उसकी आँखों से आंसू बहने लगते हैं। बगिया आज भी है मगर जामुन का पेड़ नहीं है। यदि होता तो वह आज भरा-पूरा पेड़ बन कर लहलहा रहा होता। हाय ! वह जामुन का पेड़।
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