आचार्य श्रीराम शर्मा >> कामना और वासना की मर्यादा कामना और वासना की मर्यादाश्रीराम शर्मा आचार्य
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कामना एवं वासना को साधारणतया बुरे अर्थों में लिया जाता है और इन्हें त्याज्य माना जाता है। किंतु यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इनका विकृत रूप ही त्याज्य है।
सुख-शांति की संभावना से मनुष्य पदार्थों को संग्रह किया करता है और एक दिन उसके यही संग्रहीत उपादान दुःख और अशांति के हेतु बन जाते हैं। वस्तुओं की अधिकता होने से उनकी साज-सँभाल में व्यस्त रहना पड़ता है। यदि ऐसा न किया जाए तो वे विकृत एवं विकारों से अभिभूत होकर नष्ट होने लगेंगे और तब उनमें भ्रामक सुख का हेतु आकर्षण भी होने लगेगा, जिससे न केवल दुःख ही होगा बल्कि वे चीजें एक बोझ बनकर सिर दरद बन जाएँगी। संग्रह को चोरी का भी भय बना रहता है। उसकी रक्षा की चिंता चिता की तरह जलती हुई नींद तक हर लेती है। यदि इस प्रकार की संभावना न भी रहे तब भी संसार की प्रत्येक वस्तु नाशवान है। सारी चीजें धीरे-धीरे स्वयं ही नष्ट होने लगती हैं। ऐसी दशा में दुःख होना स्वाभाविक है। बहुधा जड़ पदार्थों की आयु मनुष्य की आयु से अधिक होती है। चीजें बनी रहती हैं किंतु मनुष्य चल देता है। ऐसी कल्पना आते ही लोभी पुरुष को यह भाव सताने लगता है कि हाय ! जिन चीजों को मैंने यत्नपूर्वक इकट्ठा किया है उन्हें छोड़कर मुझे इस संसार से चला जाना पड़ेगा। यह मोहमय चिंतन मनुष्य को कितनी पीड़ा दे सकता है इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
तर्क अथवा अनुमान प्रमाण के अतिरिक्त इस बात के अनेक प्रमाण पाए जा सकते हैं कि पदार्थों के संग्रह में सुख की कल्पना करना मरु-मरीचिका में जल की संभावना करना है। यदि वस्तुओं एवं पदार्थों के संग्रह में सुखशांति रही होती, तो संसार में एक से एक बढ़कर धनकुबेर तथा साधन-संपन्न व्यक्ति विद्यमान हैं, वे सब पराकाष्ठा तक सुखी तथा संतुष्ट होते। दुःख अथवा अशांति उनके पास-पड़ोस में होकर भी नहीं गुजरते, किंतु ऐसा देखने में नहीं आता। संसार के धन कुबेर, साधन-संपन्न तथा वस्तुओं के भंडारी एक साधारण व्यक्ति से भी अधिक व्यग्र, चिंतित, दुखी तथा अशांत देखे जाते हैं। पदार्थों के अनावश्यक संग्रह में सुख- शांति की संभावना देखना एक भारी भूल है।
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