आचार्य श्रीराम शर्मा >> कामना और वासना की मर्यादा कामना और वासना की मर्यादाश्रीराम शर्मा आचार्य
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कामना एवं वासना को साधारणतया बुरे अर्थों में लिया जाता है और इन्हें त्याज्य माना जाता है। किंतु यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इनका विकृत रूप ही त्याज्य है।
मनुष्य की इस विपरीत गति का एक कारण तो यह है कि मनुष्य की सुख-लिप्सा बहुत बढ़ गई है। जिस वस्तु में बहुत स्पृहा अपनी सीमा को लाँघ जाती है तब वह दुःख का कारण बन जाती है। मनुष्य को सुख मिलते हैं तो वह और सुख चाहता है। जब वह और सुख पाता है तब और अधिक पाने के लिए लालायित हो उठता है। इस प्रकार उसकी स्पृहा उत्तरोत्तर बढ़ती हुई अतृप्ति अथवा असंतोष का रूप हरण कर लेती है। असंतुष्ट कामनाओं की पूर्ति असंभव है। जहाँ असंतोष है, अतृप्ति है, वहाँ सुख और शांति कहाँ? असंतोष में बदली हुई अपनी लिप्सा पूरी करने के लिए कामनाओं से प्रेरित किया हुआ मनुष्य उचित-अनुचित, युक्त- अयुक्त, सभी प्रकार के काम करने में प्रवृत्त हो जाता है। अत्यधिक सुख का कामी पुरुष दूसरों की सुख-सुविधा का भी विचार नहीं करता, जिससे दुःख तथा अशांति के परिणाम वाले संघर्ष प्रारंभ हो जाते हैं। जहाँ संघर्षों की चिनगारियाँ दहक रही हों वहाँ और अधिक सुख-शांति तो दूर, जो कुछ रही-बची शांति होती है, वह भी भस्म हो जाती है।
दुःख एवं अशांति का एक कारण अत्याग अथवा संग्रह वृत्ति भी है। मनुष्य ने कुछ इस प्रकार की गलत धारणा बना ली है कि वह जितने भी अधिक से अधिक पदार्थ एवं वस्तुएँ अपने पास इकट्ठा कर सकेगा, उतनी ही अधिक सुख-शांति उसे मिल सकेगी। इसी आधार पर लोग अपने पास वस्तुओं का भंडार इकट्ठा करने का प्रयत्न करते रहते हैं। इस प्रकार की संग्रह वृत्ति लोभ को जन्म देती है। वह जो भी वस्तु किसी के पास देखता है उसे पाने के लिए ललचा उठता है। जिस चाही वस्तु को वह सरल मार्ग से प्राप्त कर सकता है, उसे सरल मार्ग से पाने का प्रयत्न करता है अन्यथा उसके लिए छल-कपट तथा कुटिलता करने में भी नहीं चूकता। लोभ होता ही ऐसी बुरी बला है। यह जिसे लग जाती है उसे बुराई की ओर ही प्रेरित करती है। लोभ से ही ईर्ष्या-द्वेष का जन्म होता है। ईर्ष्या एवं द्वेष दो ऐसे विषधर हैं जिनका अशन मनुष्य के हृदय की सुख-शांति ही हुआ करता है। जिनकी मन-बुद्धि और आत्मा इन विषधरों के विष से व्याकुल रहते हैं, वे स्वप्न में भी सुख-शांति की अनुभूति नहीं कर सकते।
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