नई पुस्तकें >> विजय, विवेक और विभूति विजय, विवेक और विभूतिश्रीरामकिंकर जी महाराज
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विजय, विवेक और विभूति का तात्विक विवेचन
जुआरी को तो अपना दाँव सूझता है। मानो चित्रकूट में भी आज एक जुआ हो रहा है। यह अनोखा जुआ है जिसमें एक ओर धर्म और मर्यादा है, तो दूसरी ओर प्रेम है। उनका भाव है कि देखना यह है कि आज किसकी जीत होती है? धर्म और मर्यादा की जीत होती है कि भावना और प्रेम की? किसकी जीत हुई? भगवान् श्रीराम ने जैसा कि उनका स्वभाव था, श्रीभरत को जिताया। श्रीभरत जीत गये और शत्रुघ्नजी की जीत तो भरतजी की जीत में ही सम्मिलित है। इस जीत का क्या अर्थ है? यदि ठीक-ठीक जुआ खेलना हम सीख जायें और भक्ति के साथ हम दाँव लगा दें तो भगवान् को भी परास्त कर सकते हैं।
संसार के जुआरी जीत कर प्रसन्न होते हैं, परन्तु प्रभु की अनोखी बात यह है कि वे भक्त को जिताकर प्रसन्न होते हैं। अगर हम शत्रुघ्नजी के समान जीवन में जुआ खेलें तो जीत में कोई सन्देह नहीं है। दूसरी बात यह कही गयी कि जिनको शास्त्रार्थ करना हो वे शत्रुघ्नजी का नाम लें, पर आपने ध्यान दिया कि ‘रामायण’ में श्रीराम का भी भाषण है, श्रीलक्ष्मण का भी भीषण है और श्रीभरत का भी भीषण है, परन्तु गोस्वामीजी ने यह नहीं कहा कि इन तीनों का नाम ले लीजिए तो आप विवाद में जीत जायेंगे। तीनों के जीवन में भाषण है। शत्रुघ्नजी ही मौन हैं, चुप हैं। भाव यह है कि बोलियेगा तो कभी जीतियेगा और कभी हारियेगा, परन्तु मौन रहियेगा तो मौन में तो जीत ही जीत है।
यदि शत्रुघ्नजी की कला हमारे जीवन में आ जाय तो हम मौन के द्वारा सारे तर्क-वितर्क को सहज परास्त कर सकते हैं। ‘मानस’ में शत्रुघ्नजी द्वारा युद्ध किये जाने का कहीं कोई वर्णन नहीं है। केवल मन्थरा के ऊपर उन्होंने प्रहार किया और इस प्रसंग पर बड़े विस्तार से विचार किया जा सकता है। यही मन्थरा समस्त अनर्थों की जड़ है। रामराज में बाधक है, कैकेयी की बुद्धि को भ्रष्ट करने वाली है। यह मन्थरा की वृत्ति जब तक समाज में रहेगी, तब तक रामराज्य की स्थापना नहीं हो सकती। जब हम शत्रुघ्न के समान उस वृत्ति पर विजय प्राप्त करते हैं, उस पर प्रहार करते हैं, तब स्वाभाविक रूप से शत्रु की पराजय होती है। यह संकेत इस सन्दर्भ में दिया गया। भगवान् श्रीराम की रावण पर जो विजय होती है, यह केवल एक भौतिक प्रयोजन है।
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