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विजय, विवेक और विभूति

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :31
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9827
आईएसबीएन :9781613016152

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विजय, विवेक और विभूति का तात्विक विवेचन


सुजान शंकर आये। संकेत मानो यह है कि जब अजानों की भीड़ छँट गयी तब सुजान ने आना पसन्द किया। जब तक अजान वहाँ प्रभु को घेरे खड़े थे, तब तक सुजान शंकर जी नहीं आये। अभिप्राय यह है कि अजान भी रामकथा का रस लेते हैं, वे भी प्रभु की प्रशंसा करते हैं, राम के गुण गाते हैं, जैसा कि देवताओं के प्रसंग में आता है। श्रीराम का जो आदर्श है और उसको हृदयंगम करने का जो प्रभाव हमारे जीवन में पड़ना चाहिए वह जब नहीं पड़ता तो गोस्वामीजी यह कहते हैं कि मानो ये लोग अजान ही हैं।

अगर आप देवताओं की तरह कथा कहते या सुनते हैं तो उसका महत्त्व तो है ही, परन्तु उससे अजान की ही अपाधि मिलेगी, सुजान की नहीं।  आप अज्ञानी की स्तुति पढ़िये और सुजान की स्तुति पढ़िये तो आप पायेंगे कि दोनों में कितना अन्तर है। देवता रावण की सभा में जाते हैं तब रावण की भी स्तुति करते हैं जैसा हनुमानजी ने देखा था और वे ही देवता आज राम के सामने आये हैं तो राम की स्तुति कर रहे हैं। जो रावण की भी स्तुति करे और श्रीराम की भी स्तुति करे उसकी भाषा कितनी भी बढ़िया क्यों न हो, वस्तुतः क्या उस स्तुति को स्तुति माना जाना चाहिए?

भगवान् शंकरजी की भूमिका यह है कि शंकरजी ने हनुमानजी के रूप में लंका के युद्ध में भाग लिया। इस रूप में उनकी सेवा सबसे अधिक है और आज शंकरजी आये तो उनकी स्तुति से ऐसा लगा ही नहीं कि वे किस अवसर पर आये हैं। रावण का नाम ही नहीं है। आपको शंकरजी की स्तुति में एक भी वाक्य रावण की निन्दा में नहीं मिलेगा। उसमें श्रीराम जी की जो प्रशंसा है वह भी इस रूप में नहीं है कि आपने रावण का वध कर दिया, अपितु अजानों के बाद सुजान ने जो पहला वाक्य कहा, वह है,

मामभिरक्षय  रघुकुल  नायक। 6/114 छंद

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