धर्म एवं दर्शन >> सुग्रीव और विभीषण सुग्रीव और विभीषणरामकिंकर जी महाराज
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सुग्रीव और विभीषण के चरित्रों का तात्विक विवेचन
अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि के रूप में जिस जीव का वर्णन किया गया है, वह जीव अपने मूल रूप में शुद्ध, बुद्ध एवं मुक्त है। यही सत्य इन पात्रों के जीवन के माध्यम से बताया गया है और अन्त में भी उसी स्थिति की प्राप्ति होती है जिसमें जीव एवं ब्रह्म से एकत्व का उदय होता है, लेकिन मध्य में ऐसी स्थिति है कि जब वह अपने अन्तःकरण की दुर्वत्तियों के कारण मलिन और अशुद्ध जैसा प्रतीत होता है और देवत्व और मनुष्यत्व से गिर करके राक्षसत्व में आ जाता है।
कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि व्यक्ति में बुराई तो स्वाभाविक है और सद्गुणों के लिए उसे प्रयत्न करना पड़ता है, पर यदि आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करके देखें तो जीव मूलतः शुद्ध है, केवल मध्य में ही वह रावण, कुम्भकर्ण और मेघनाद बन जाता है। रावण मूर्तिमान् मोह है, कुम्भकर्ण मूर्तिमान् अहंकार है और मेघनाद मूर्तिमान् काम है। शुद्ध जीव जब मोहग्रस्त होता है, अभिमानग्रस्त होता है, कामग्रस्त होता है तब उसके जीवन में राक्षसत्व दिखायी देता है और अन्त में उस राक्षसत्व का विनाश कैसे होता है? इसी पद्धति का ‘श्रीरामचरितमानस’ में वर्णन किया गया है।
विभीषण के पूर्वजन्म में धर्मरुचि के रूप में उसकी धर्म में बड़ी रुचि थी, लेकिन प्रतापभानु के जीवन में ऐसी अज्ञान की वृत्ति दिखायी देती है कि जब कपटमुनि ने पूछा कि तुम्हें क्या चाहिए? तब उसने यह कहा कि मुझे अमर बना दीजिए। सत्य तो यह है कि प्रतापभानु ने देह को ही आत्मा मान लिया है और इसीलिए इसका शुद्ध तात्पर्य यह हुआ कि देहाभिमान की जो वृत्ति है, उसके कारण ही प्रतापभानु अन्त में राक्षस के रूप में परिणत हो जाता है और दूसरी ओर धर्मरुचि नाम के जो प्रतापभानु के मन्त्री थे, वे विभीषण के रूप में जन्म लेते हैं। इसमें साधना का एक क्रम है। धर्मरुचि नाम का अर्थ यह है कि साधना के क्रम में सबसे पहले व्यक्ति के अन्तःकरण में धर्म के प्रति रुचि होनी चाहिए। धर्म के प्रति आकर्षण होना चाहिए और फिर उसका परिणाम क्या होगा? इसका क्रम है –
धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना।
ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना।। 3/15/1
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