जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
यह पत्र शिमला भेजना था, क्योंकि सभा के समाप्त होते ही वाइसरॉय शिमला पहुँच गये थे। वहाँ डाक द्वारा पत्र भेजने में देर होती थी। मेरी दृष्टि से पत्र महत्त्व का था। समय बचाने की आवश्यकता थी। हर किसी के साथ पत्र भेजने की इच्छा न थी। मुझे लगा कि पत्र किसी पवित्र मनुष्य के द्वारा जाये तो अच्छा हो। दीनबन्धु और सुशील रुद्र ने रेवरंड आयरलेंड नामक एक सज्जन का नाम सुझाया। उन्होंने पत्र ले जाना स्वीकार किया, बशर्ते कि पढने पर वह उन्हें शुद्ध प्रतीत हो। पत्र व्यक्तिगत नहीं था। उन्होंने पढ़ा और वे ले जाने को राजी हुए। मैंने दूसरे दरजे का रेल-किराया देने की व्यवस्था की, किन्तु उन्होंने उसे लेने से इनकार किया और रात की यात्रा होते हुए भी डयोढे दर्जे का ही टिकट लिया। उनकी सादगी, सरलता और स्पष्टता पर मैं मुग्ध हो गया। इस प्रकार पवित्र हाथो द्वारा दिये गये पत्र का परिणाम मेरी दृष्टि से अच्छा ही हुआ। उससे मेरा मार्ग साफ हो गया।
मेरी दूसरी जिम्मेदारी रंगरूट भरती कराने की थी। इसकी याचना मैं खेड़ा में न करता तो और कहाँ करता? पहले अपने साथियो को न न्योतता तो किसे न्योतता? खेड़ा पहुँचने ही वल्लभभाई इत्यादि के साथ मैंने सलाह की। उनमें से कुछ के गले बात तुरन्त नहीं उतरी नहीं। जिनके गले उतरी उन्होंने कार्य की सफलता के विषय में शंका प्रकच की। जिन लोगों में रंगरूटो की भरती करनी थी, उन लोगों में सरकार के प्रति किसी प्रकार का अनुराग न था। सरकारी अफसरो का उन्हे जो कड़वा अनुभव हुआ था, वह भी ताजा ही था।
फिर भी सब इस पक्ष में हो गये कि काम शुरू करते ही मेरी आँख खुली। मेरा आशावाद भी कुछ शिथिल पड़ा। खेड़ा की लड़ाई में लोग अपनी बैलगाड़ी मुफ्त में देते थे। जहाँ एक स्वयंसेवक का हाजिरी की जरूरत थी, वहाँ तीन-चार मिल जाते थे। अब पैसे देने पर भी गाड़ी दुर्लभ हो गयी। लेकिन हम यों निराश होने वाले नहीं थे। गाड़ी के बदले हमने पैदल यात्रा करने का निश्चय किया। रोज बीस मील की मंजिल तय करनी थी। जहाँ गाड़ी न मिलती, वहाँ खाना तो मिलता ही कैसे? माँगना उचित नहीं जान पड़ा अतएव यह निश्चय किया कि प्रत्येक स्वयंसेवक अपने खाने के लिए पर्याप्त साम्रगी अपनी थैली मंि लेकर निकले। गर्मी के दिन थे, इसलिए साथ में ओढने के लिए तो कुछ रखने की आवश्यकता न थी।
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