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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824
आईएसबीएन :9781613015780

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा

रंगरूटों की भरती


मैं सभा में हाजिर हुआ। वाइसरॉय की तीव्र इच्छा थी कि मैं सिपाहियो की मददवासे प्रस्ताव का समर्थन करूँ। मैंने हिन्दी हिन्दुस्तानी में बोलने की इजाजत चाही। वाइसरॉय ने इजाजत तो दी, किन्तु साथ ही अंग्रेजी में भी बोलने को कहा। मुझे भाषण तो करना ही नहीं था। मैंने वहाँ जो कहा सो इतना ही था, 'मुझे अपनी जिम्मेदारी का पूरा ख्याल है और उस जिम्मेदारी को समझते हुए मैं इस प्रस्ताव का समर्थन करता हूँ।'

हिन्दुस्तानी में बोलने के लिए मुझे बहुतो ने धन्यबाद दिया। वे कहते थे कि इधर के जमाने में वाइसरॉय की सभा में हिन्दुस्तानी बोलने का यह पहला उदाहरण था। धन्यबाद की और पहले उदाहरण की बात सुनकर मुझे दुःख हुआ। मैं शरमाया, अपने ही देश में, देश से सम्बन्ध रखनेवाले काम की सभा में, देश की भाषा का बहिस्कार अथवा अवगणना कितने दुःख की बात थी ! और, मेरे जैसा कोई हिन्दुस्तानी में एक या दो वाक्य बोले तो उसमें धन्यबाद किस बात का? ऐसे प्रसंग हमारी गिरी हुई दशा का ख्याल करानेवाले है। सभा में कहे गये मेरे वाक्य में मेरे लिए तो बहुत वजन था। मैं उस सभा को अथवा उस समर्थन को भूल नहीं सकता था। अपनी एक जिम्मेदारी तो मुझे दिल्ली में ही पूरी कर लेनी थी। वाइसरॉय को पत्र लिखने का काम मुझे सरल न जान पड़ा। सभा में जाने की अपनी अनिच्छा, उसके कारण, भविष्य की आशाये आदि की सफाई देना मुझे अपने लिए सरकार के लिए और जनता के लिए आवश्यक मालूम हुआ।

मैंने वाइसरॉय को जो पत्र लिखा, उसमें लोकमान्य तिलक, अली भाई आदि नेताओं की अनुपस्थिति के विषय में अपना खेद प्रकट किया तथा लोगों की राजनीतिक माँग का और लड़ाई के कारण उत्पन्न हुई मुसलमानों की माँग का उल्लेख किया। मैंने इस पत्र को छपाने की अनुमति चाही और वाइसरॉय ने वह खुशी से दे दी।

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