जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
घर साफ रखने के लिए एक नौकर था। वह घर के आदमी की तरह रहता था और उसके काम में बालक पूरा हाथ बँटाते थे। पाखाना साफ करने के लिए तो म्युनिसिपैलिटी का नौकर आता था, पर पाखाने के कमरे को साफ करने का काम नौकर को नहीं सौपा जाता था। उससे वैसी आशा भी नहीं रखी जाती थी। यह काम हम स्वयं करते थे और बालकों को तालीम मिलती थी। परिणाम यह हुआ कि शुरू से ही मेरे एक भी लड़के को पाखाना साफ करने की घिन न रही और आरोग्य के साधारण नियम भी वे स्वाभाविक रूप से सीख गये। जोहानिस्बर्ग में कोई बीमार तो शायद ही कभी पड़ता था। पर बीमारी का प्रसंग आने पर सेवा के काम में बालक अवश्य रहते थे और इस काम को खूशी से करते थे।
मैं यह तो नहीं कहूँगा कि बालकों के अक्षर ज्ञान के प्रति मैं लापरवाह रहा। पर यह ठीक है कि मैंने उसकी कुरबानी करने में संकोच नहीं किया। और इस कमी के लिए मेरे लड़को को मेरे विरुद्ध शिकायत करने का कारण रह गया है। उन्होंने कभी कभी अपना असंतोष भी प्रकट किया है। मैं मानता हूँ कि इसमे किसी हद तक मुझे अपना दोष स्वीकार करना चाहिये। उन्हें अक्षर ज्ञान कराने की मेरी इच्छा बहुत थी, मैं प्रयत्न भी करता था, किन्तु इस काम में हमेशा कोई न कोई विध्न आ जाता था। उनके लिए घर पर दूसरी शिक्षा की सुविधा नहीं की गई थी, इसलिए मैं उन्हें अपने साथ पैदल दफ्तर तक ले जाता था। दफ्तर ढाई मील दूर था, इससे सुबह शाम मिलाकर कम से कम पाँच मील की कसरत उन्हे औऱ मुझे हो जाती थी। रास्ता चलते हुए मैं उन्हे कुछ न कुछ सिखाने का प्रयत्न करता था, पर यह भी तभी होता था, जब मेरे साथ दूसरा कोई चलने वाला न होता। दफ्तर में वे मुवक्किलो व मुहर्रिरो के सम्पर्क में आते थे। कुछ पढ़ने को देता तो वे पढते थे। इधर उधर घूम फिर लेते थे और बाजार से मामूली सामान खरीदना हो तो खरीद लाते थे।
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