जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
घर में परिवर्तन और बालशिक्षा
डरबन में मैंने जो घर बसाया था, उसमें परिवर्तन तो किये ही थे। खर्च अधिक रखा था, फिर भी झुकाव सादगी की ओर ही था। किन्तु जोहानिस्बर्ग में 'सर्वोदय' के विचारो ने अधिक परिवर्तन करवाये।
बारिस्टर के घर में जितनी सादगी रखी जा सकती थी, उतनी तो रखनी शुरू कर ही दी। फिर भी कुछ साज-सामान के बिना काम चलाना मुश्किल था। सच्ची सादगी तो मन की बढ़ी। हर एक काम अपने हाथो करने को शौक बढ़ा और बालकों को भी उसमें शरीक करके कुशल बनाना शुरू किया।
बाजार की रोटी खरीदने के बदले कूने की सुझाई हुई बिना खमीर की रोटी हाथ से बनानी शुरू की। इसमे मिल का आटा काम नहीं देता था। साथ ही मेरा यह भी ख्याल रहा था मिल में पिसे आटे का उपयोग करने की अपेक्षा हाथ से पिसे आटे का उपयोग करने में सादगी, आरोग्य और पैसा तीनों की अधिक रक्षा होती है। अतएव सात पौंड खर्च करके हाथ से चलाने की एक चक्की खरीद ली। उसका पाट वजनदार था। दो आदमी उसे सरलता से चला सकते थे, अकेले को तकलीफ होती थी। इस चक्की को चलाने में पोलाक, मैं और बालक मुख्य भाग लेते थे। कभी कभी कस्तूरबाई भी आ जाती थी, यद्यपि उस समय वह रसोई बनाने में लगी रहती थी। मिसेज पोलाक के आने पर वे भी इसमे सम्मिलित हो गयी। बालकों के लिए यह कसरत बहुत अच्छी सिद्ध हुई। उनसे कोई काम कभी जबरदस्ती नहीं करवाया। वे सहज ही खेल समझ कर चक्की चलाने आते थे। थकने पर छोड़ देने की उन्हें स्वतंत्रता थी। पर न जाने क्या कारण था कि इन बालकों ने अथवा दूसरे बालकों ने, जिनकी पहचान हमें आगे चलकर करनी है, मुझे तो हमेशा बहुत ही काम दिया है। मेरे भाग्य में टेढे स्वभाव के बालक भी थे, अधिकतर बालक सौपा हुआ काम उमंग के साथ करते थे। 'थक गये' कहनेवाले उस युग के थोडे ही बालक मुझे याद है।
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