जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
|
0 |
महात्मा गाँधी की आत्मकथा
एक पुण्यस्मरण और प्रायश्चित
मेरे जीवन में ऐसी घटनाये घटती ही रही हैं जिसके कारण मैं अनेक धर्मावलम्बियों के और अनेक जातियों के गाढ़ परिचय में आ सका हूँ। इन सब के अनुभवों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मैंने अपने और पराये, देशी और विदेशी, गोरे और काले, हिन्दू और मुसलमान अथवा ईसाई, पारसी यहूदी के बीच कोई भेद नहीं किया। मैं कह सकता हूँ कि मेरा हृदय ऐसे भेद को पहचान ही न सका। अपने सम्बन्ध में मैं इस चीज को गुण नहीं मानता, क्योंकि जिस प्रकार अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि यमों की सिद्धि का प्रयत्न करने का और उस प्रयत्न के अब तक चलने का मुझे पूरा भान है, उसी प्रकार मुझे याद नहीं पड़ता कि ऐसे अभेद को सिद्ध करने का मैंने विशेष प्रयत्न किया हो।
जब मैं डरबन में वकालत करता था, तब अकसर मेरे मुहर्रिर मेरे साथ रहते थे। उनमें हिन्दू और ईसाई थे अथवा प्रान्त की दृष्टि से कहूँ तो गुजराती औऱ मद्रासी थी। मुझे स्मरण नहीं हैं कि उनके बारे में मेरे मन में कभी भेदभाव पैदा हुआ हो। मैं उन्हें अपना कुटुम्बी मानता था औऱ यदि पत्नी की ओर से इसमे कोई बाधा आती तो मैं उससे लड़ता था। एक मुहर्रिर ईसाई था। उसके माता-पिता पंचम जाति के थे। हमारे घर की बनाबट पश्चिम ढब की थी। उसमें कमरों के अन्दर मोरियाँ नहीं होती -- मैं मानता हूँ कि होनी भी नहीं चाहिये -- इससे हरएक कमरे में मोरी की जगह पेशाब के लिए खास बरतन रखा जाता हैं। उसे उठाने का काम नौकर का न था, बल्कि हम पति-पत्नी का था। जो मुहर्रिर अपने को घर का-सा मानने लगते, वे तो अपने बरतन खुद उठाते भी थे। यह पंचम कुल में उत्पन्न मुहर्रिर नया था। उसका बरतन हमें ही उठाना चाहियें था। कस्तूरबाई दूसरे बरतन चो उठाती थी, पर इस बरतन को उठाना उसे असह्य लगा। इससे हमारे बीच कलह हुआ। मेरा उठाना उससे सहा न जाता था और खुद उठाना उसे भारी हो गया। आँखो से मोती को बूँदे टपकाती, हाथ में बरतन उठाती और अपनी लाल आँखो से मुझे उलाहना देकर सीढियाँ उतरती हुई कस्तूरबाई का चित्र मैं आज भी खींच सकता हूँ।
|