जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
प्रातः दातुन और स्नान के समय का उपयोग गीता के श्लोक कंठ करने में किया। दातुन में पन्द्गह और स्नान में बीस मिनट लगते थे। दातुन अंग्रेजी ढंग से मैं खड़े-ख्ड़े करता था। सामने की दीवार पर गीता के श्लोक लिखकर चिपका देता था और आवश्यकतानुसार उन्हें देखता तथा घोखता जाता था। ये घोखे हुए श्लोक स्नान करने तक पक्के हो जाते थे। इस बीच पिछले कंठ किये हुए श्लोको को भी मैं एक बार दोहरा जाता था। इसप्रकार तेरह अध्याय तक कंठ करने की बात मुझे याद हैं। बाद में काम बढ़ गया। सत्याग्रह का जन्म होने पर उस बालक के लालन-पालन में मेरा विचार करने का समय भी बीतने लगा और कहना चाहिये कि आज भी बीत रहा हैं।
इस गीतापाठ का प्रभाव मेरे सहाध्यायियो पर क्या पड़ा उसे वे जाने, परन्तु मेरे लिए तो वह पुस्तक आचार की एक प्रौढ मार्गदर्शिका बन गयी। वह मेरे लिए धार्मिक कोश का काम देने लगी। जिस प्रकार नये अंग्रेजी शब्दों के हिज्जो यो उनके अर्थ के लिए मैं अंग्रेजी शब्दकोश देखता था, उसी प्रकार आचार-सम्बन्धी कठिनाइयों और उनकी अटपटी समस्याओ को मैं गीता से हल करता था।
उसके अपरिग्रह, समभाव आदि शब्दों ने मुझे पकड़ लिया। समभाव का विकास कैसे हो, उसकी रक्षा कैसे की जाय? अपमान करनेवाले अधिकारी,रिश्वत लेनेवाले अधिकारी, व्यर्थ विरोध करने वाले कल के साथी इत्यादि और जिन्होने बड़े-बड़े उपकार किये हैं ऐसे सज्जनों के बीच भेद न करने का क्या अर्श हैं? अपरिग्रह किस प्रकार पाला जाता होता? देह का होना ही कौन कम परिग्रह हैं? स्त्री-पुत्रादि परिग्रह नहीं तो और क्या हैं? ढेरो पुस्तकों से भरी इन आलमारियो को क्या जला डालूँ? घर जलाकर तीर्थ करने जाऊँ? तुरन्त ही उत्तर मिला कि घर जलाये बिना तीर्थ किया ही नहीं जा सकता। यहाँ अंग्रेजी कानून में मेरी मदद की। स्नेल की कानूनी सिद्धान्तों की चर्चा याद आयी। गीता के अध्ययन के फलस्वरुप 'ट्रस्टी' शब्द का अर्थ विशेष रुप से समझ में आया। कानून शास्त्र के प्रति मेरा आदर बढ़ा। मुझे उसमें भी धर्म के दर्शन हुए। ट्रस्टी के पास करोड़ो रुपयो के रहते हुए भी उनमें से एक भी पाई उसकी नहीं होती। मुमुक्षु को ऐसा ही बरताव करना चाहिये, यह बात मैंने गीताजी से समझी। मुझे यह दीपक की तरह स्पष्ट दिखायी दिया कि अपरिग्रह बनने में, समभावी होने में हेतु का, हृदय का परिवर्तन आवश्यक हैं। मैंने रेवाशंकरभाई को इस आशय का पत्र लिख भेजा कि बीमे की पॉलिसी बन्द कर दें। कुछ रकम वापस मिले तो ले लें, नहीं तो भरे हुए पैसों को गया समझ लें। बच्चों की और स्त्री के रक्षा उन्हें और हमें करने वाला ईश्वर करेंगा। पितृतुल्य भाई को लिखा, 'आज तक तो मेरे पास जो बचा मैंने आप को अर्पण किया। अब मेरी आशा आप छोड़ दीजिये। अब जो बचेगा सो यहीं हिन्दुस्तान समाज के हित में खर्च होगा।'
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