जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
निरीक्षण का परिणाम
सन् 1893 में जब मैं ईसाई मित्रों के निकट सम्पर्क में आया, तब मंी केवल शिक्षार्थी की स्थिति में था। ईसाई मित्र बाइबल का संदेश सुनाने, समझाने और मुझे उसको स्वीकार कराने का प्रयत्न करते थे। मैं नम्रता पूर्वक, तटस्थ भाव से उनकी शिक्षा को सुन और समझ रहा था। इस निमित्त से मैंने हिन्दू धर्म का यथास्थिति अध्ययन किया और दूसरे धर्मों को समझने की कोशिश की। अब 1903 में स्थिति थोडी बदल गयी। थियॉसॉफिस्ट मित्र मुझे अपने मंडल में सम्मिलित करने की इच्छा अवश्य रखते थे। पर उनका हेतु हिन्दू के नाते मुझसे कुछ प्राप्त करना था। थियॉसॉफी की पुस्तकों में हिन्दू धर्म की छाया और उसका प्रभाव तो काफी हैं। अतएव इस भाईयों ने माने लिया कि मैं उनकी सहायता कर सकूँगा। मैंने उन्हें समझाया कि संस्कृत का मेरा अध्ययन नहीं के बराबर हैं। मैंने उसेक प्राचीन धर्मग्रंथ संस्कृत में नहीं पढ़े है। अनुवादो के द्वारा भी मेरी पढाई कम ही हुई है। फिर भी चूंकि वे संस्कार और पुनर्जन्म को मानते थे, इसलिए उन्होंने समझा कि मुझसे थोडी-बहुत सहायता तो मिलेगी ही और मैं 'निरस्तपादपे देशे एरंडोडपि दुमायते' (जहाँ कोई वृक्ष न हो वहाँ एंरड ही वृक्ष बन जाता हैं।) जैसी स्थिति में आ पड़ा। किसी के साथ मैंने स्वामी विवेकानन्द को, तो किसी के साथ मणिलाल नथुभाई का 'राजयोग' पढना शुरू किया। एक मित्र के साथ 'पातंजल योगदर्शन' पढना पड़ा। बहुतो के साथ गीता का अभ्यास शुरू किया। 'जिज्ञासु मंडल' के नाम से एक छोटा सा मंडल भी स्थापित किया और नियमित अभ्यास होने लगा। गीताजी पर मुझे प्रेम और श्रद्धा तो थी ही। अब उसकी गहराई में उतरने की आवश्यकता प्रतीत हुई। मेरे पास एक दो अनुवाद थे। उनकी सहायता से मैंने मूल संस्कृत समझ लेने का प्रयत्न किया और नित्य एक-दो श्लोक कंठ करने का निश्चय किया।
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