जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
एशियाई विभाग की नवाबशाही
नये विभाग के अधिकारी समझ नहीं पाये कि मैं ट्रान्सवाल में दाखिल कैसे हो गया। उन्होंने अपने पास आने-जानेवाले हिन्दुस्तानियों से पूछा, पर वे बेचारे क्या जानते थे। अधिकारियों ने अनुमान किया कि मैं अपनी पुरानी जान-पहचान के कारण बिना परवाने के दाखिल हुआ होऊँगा और अगर ऐसा है तो मुझे गिरफ्तार किया जा सकता हैं।
किसी बड़ी लड़ाई के बाद हमेशा ही कुछ समय के लिए राज्यकर्ताओ की विशेष सत्ता दी जाती हैं। दक्षिण अफ्रीका में भी यही हुआ। वहाँ शान्ति रक्षा के हेतु एक कानून बनाया गया था। इस कानून की एक धारा यह थी कि यदि कोई बिना परवाने के ट्रान्सवाल में दाखिल हो, तो उसे गिरफ्तार कर लिया जाय और उसे कैद में रखा जाय। इस धारा के आधार पर मुझे पकड़ने के लिए सलाह-मशविरी चला। पर मुझ से परवाना माँगने की हिम्मत किसी की नहीं हुई।
अधिकारियों ने डरबन तार तो भेजे ही थे। जब उन्हें यह सूचना मिली कि मैं परवाना लेकर दाखिल हुआ हूँ तो वे निराश हो गये। पर ऐसी निराशा से यह विभाग हिम्मत हारने वाला नहीं था। मैं ट्रान्सवाल पहुँच गया था, लेकिन मुझे मि. चेम्बरलेन के पास न पहुँचने देने में यह विभाग अवश्य ही सफल हो सकता था। इसलिए प्रतिनिधियों के नाम माँगे गये। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद का अनुभव तो जहाँ-तहाँ होता ही था, पर यहाँ हिन्दुस्तान की सी गन्दगी और चालबाज की बू आयी। दक्षिण अफ्रीका में शासन के साधारण विभाग जनता के लिए काम करते थे, इसलिए वहाँ के अधिकारियों में एक प्रकार की सरलता और नम्रता थी। इसका लाभ थोड़े-बहुत अंश में काली-पीली चमड़ीवालो को भी अनायास मिल जाता था। अब जब इससे भिन्न एशियाई वातावरण ने प्रवेश किया, तो वहाँ के जैसी निरंकुशता, वैसे षड्यंत्र आदि बुराइयाँ भी आ घुसीं। दक्षिण अफ्रीका में एक प्रकार की लोकसत्ता थी, जब कि एशिया से तो निरी नवाबशाही ही आयी, क्योंकि वहाँ जनता की सत्ता नहीं थी, बल्कि जनता पर ही सत्ता चलायी जाती थी। दक्षिण अफ्रीका में गोरे घर बनाकर बस गये थे, इसलिए वे वहाँ की प्रजा माने गये। इस कारण अधिकारियों पर उनका अंकुश रहता था। इसमे एशिया से आये हुए निरंकुश अधिकारियों में सम्मिलित होकर हिन्दुस्तानियों की स्थिति सरोते के बीच सुपारी जैसी कर डाली।
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