जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
|
0 |
महात्मा गाँधी की आत्मकथा
सादगी
भोग भोगना मैंने शुरू तो किया, पर वह टिक न सका। घर के लिए साज-सामान भी बसाया, पर मेरे मन में उसके प्रति कभी मोह उत्पन्न नहीं हो सका। इसलिए घर बसाने के साथ ही मैंने खर्च कम करना शुरू कर दिया। धोबी का खर्च भी ज्यादा मालूम हुआ। इसके अलावा, धोबी निश्चित समय पर कपड़े नहीं लौटाता था। इसलिए दो-तीन दर्जन कमीजो और उतने कालरो से भी मेरा काम चल नहीं पाता था। कमीज रोज नहीं तो एक दिन के अन्तर से बदलता था। इससे दोहरा खर्च होता था। मुझे यह व्यर्थ प्रतीत हुआ। अतएव मैंने घुलाई का सामान जुटाया। घुलाई कला पर पुस्तक पढी और धोना सीखा। काम का बोझ तो बढ़ा ही, पर नया काम होने से उसे करने में आनन्द आता था।
पहली बार अपने हाथो घोये हुए कालर तो मैं कभी भूल नहीं सकता। उसमें कलफ अधिक लग गया था और इस्तरी पूरी गरम नहीं थी। तिस पर कालर के जल जाने के डर से इस्तरी को मैंने अच्छी तरह दबाया भी नहीं था। इससे कालर में कड़ापन तो आ गया, पर उसमें से कलफ झड़ता रहता था। ऐसी हालत में मैं कोर्ट गया और वहाँ के बारिस्टरो के लिए मजाक का साधन बन गया। पर इस तरह का मजाक सह लेने की शक्ति उस समय भी मुझ में काफी थी।
मैंने सफाई देते हुए कहा, 'अपने हाथो कालर धोने का मेरा यह पहला प्रयोग है, इस कारण इसमे से कलफ झडॉता हैं। मुझे इससे कोई अड़चल नहीं होती, तिस पर आप सब लोगों के लिए विनोद की इतनी साम्रगी जुटा रहा हूँ, तो घाते में।'
एक मित्र में पूछा, 'पर क्या धोबियो का अकाल पड़ गया हैं?'
'यहां धोबी का खर्च मुझे तो असह्य मालूम होता है। कालर की कीमत के बराबर घुलाई हो जाती है और इतनी घुलाई देने के बाद भी धोबी की गुलामी करनी पडती है। इसकी अपेक्षा अपने हाथ से धोना मैं ज्यादा पसन्द करता हूँ।'
|