जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
ब्रह्मचर्य का अर्थ हैं, मन-वचन से समस्त इन्द्रियो का संयम। इस संयम के लिए ऊपर बताये गये त्यागो की आवश्यकता हैं, इसे मैं दिन-प्रतिदिन अनुभव करता रहा हूँ और आज भी कर रहा हूँ। त्याग के क्षेत्र की सीमा ही नहीं हैं, जैसे ब्रह्मचर्य की महिमा की कोई सीमा नहीं हैं। ऐसा ब्रह्मचर्य अल्प प्रयत्न से सिद्ध नहीं होता। करोड़ो लोगों के लिए वह सदा केवल आदर्श रुप ही रहेगा। क्योंकि प्रयत्नशील ब्रह्मचारी अपनी त्रुटियों का नित्य दर्शन करेगा, अपने अन्दर ओने-कोने में छिपकर बैठे हुए विकारों को पहचान लेगा और उन्हे निकालने का सतत प्रयत्न करेगा। जब ते विचारो का इतना अंकुश प्राप्त नहीं होता कि इच्छा के बिना एक भी विचार मन में न आये, तब तक ब्रह्मचर्य सम्पूर्ण नहीं कहा जा सकता। विचार-मात्र विकार हैं, मन को वश में करना; और मन को वश वायु को वश में करने से भी कठिन हैं। फिर भी यदि आत्मा हैं, तो यह वस्तु भी साध्य है ही। हमारे मार्ग में कठिनाइयाँ आकर बाधा डालती हैं, इससे कोई यह न माने कि वह असाध्य हैं। और परम अर्थ के लिए परम प्रयत्न की आवश्यकता हो तो उसमें आश्चर्य ही क्या।
परन्तु ऐसा ब्रह्मचर्य केवल प्रयत्न- साध्य नहीं हैं, इसे मैंने हिन्दुस्तान में आने के बाद अनुभव किया। कहा जा सकता है कि तब तक मैं मूर्च्छावश था। मैंने यह मान लिया था कि फलाहार से विकार समूल नष्ट हो जाते हैं और मैं अभिमान-पूर्वक यह मानता था कि अब मेरे लिए कुछ करना बाकी नहीं हैं।
पर इस विचार के प्रकरण तक पहुँचने में अभी देर हैं। इस बीच इतना कह देना आवश्यक हैं कि ईश्वर-साक्षात्कार के लिए जो लोग मेरी व्याख्या वाले ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते हैं, वे यदि अपने प्रयत्न के साथ ही ईश्वर पर श्रद्धा रखने वाले हो, तो उनके निराशा का कोई कारण नहीं रहेगा।
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवजै रसोप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।। गीता 2, 51।।
(निराहारी के विषय तो शान्त हो जाते है, पर उसकी वासना का शमन नहीं होता। ईश्वर-दर्शन से वासना भी शान्त हो जाती हैं।)
अतएव आत्मार्थी के लिए रामनाम और रामकृपा ही अन्तिम साधन हैं, इस वस्तु का साक्षात्कार मैंने हिन्दुस्तान में ही किया।
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