जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
बच्चो के साथ मैं केवल गुजराती में ही बातचीत करता था। इससे उन्हे थोडी गुजराती सीखने को मिल जाती थी। मैं उन्हे देश भेजने को लिए तैयार न था। उस समय मेरी यह ख्याल था कि छोटे बच्चो को माता-पिता से अलग नहीं रहना चाहिये। सुव्यवस्थित घर में बालकों को जो शिक्षा सहज ही मिल जाती हैं, वह छात्रालयों में नहीं मिल सकती। एतएव अधिकतर वे मेरे साथ ही रहे। भानजे और बड़े लडके को मैंने कुछ महीनों के लिए देश में अलग-अलग छात्रालयों में भेजा अवश्य था, पर वहाँ से उन्हें तुरन्त वापस बुला लिया था। बाद में मेरा बड़ा लड़का, व्यस्क होने पर, अपनी इच्छा से अहमदाबाद के हाईस्कूल में पढने के लिए दक्षिण अफ्रीका छोड़कर देश चला गया था। अपने भानजे को जो शिक्षा मैं दे सका, उससे उसे संतोष था, ऐसा मेरा ख्याल हैं। भरी जवानी में, कुछ दिनो की बीमारी के बाद, उसका देहान्त हो गया। मेरे दूसरे तीन लड़के कभी किसी स्कूल में गये ही नहीं। दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह के सिलसिले में मैंने जो विद्यालय खोला था, उसमें उन्होंने थोडी नियमित पढ़ाई की थी।
मेरे ये प्रयोग अपूर्ण थे। लड़को को मैं स्वयं जितना समय देना चाहता था उतना दे नहीं सका। इस कारण और दूसरी अनिवार्य परिस्थितियों के कारण मैं अपनी इच्छा के अनुसार उन्हें अक्षरज्ञान नहीं दे सका। इस विषय में मेरे सब लड़को को न्यूनाधिक मात्रा में मुझ से शिकायत भी रही हैं, क्योंकि जब-जब वे 'बी. ए.',' एम. ए. ' और 'मैंट्रिक्युलेट' के भी सम्पर्क में आते, तब स्वयं किसी स्कूल में न पढ़ सकने की कमी का अनुभव करते थे।
तिस पर भी मेरी अपनी राय यह है कि जो अनुभव-ज्ञान उन्हें मिला हैं, माता-पिता का जो सहवास वे प्राप्त कर सके हैं, स्वतंत्रता का जो पदार्थपाठ उन्हें सीखने को मिला है, वह सब उन्हें न मिलता यदि मैंने उनको चाहे जिस तरह स्कूल भेजने का आग्रह रखा होता। उनके बारे में जो निश्चिन्तता आज मुझे है वह न होती, और जो सादगी और सेवाभाव उन्होंने सीखा है वह मुझसे अलग रह कर विलायत में या दक्षिण अफ्रीका में कृत्रिम शिक्षा प्राप्त करके वे सीख न पाते ; बल्कि उनकी बनाबटी रहन-सहन देशकार्य में मेरे लिए कदाचित् विध्नरुप हो जाती।
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