जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
जैसे ही हम जहाज से उतरे, कुछ लड़को ने मुझे पहचान लिया और वे 'गाँधी, गाँधी' चिल्लाने लगे। तुरन्त ही कुछ लोग इकट्ठा हो गये और चिल्लाहट बढ़ गयी। मि. लाटन ने देखा कि भीड़ बढ़ जायगी, इसलिए उन्होंने रिक्शा मँगवाया। मुझे उसमें बैठना कभी अच्छा न लगता था। उस पर सवार होने का मुझे यह पहला ही अनुभव होने जा रहा था। पर लड़के क्यों बैठने देते? उन्होंने रिक्शावाले को धमकाया और वह भाग खड़ा हुआ।
हम आगे बढे। भीड़ भी बढ़ती गयी। खासी भीड़ जमा हो गयी। सबसे पहले तो भीड़वालों ने मुझे मि. लाटन से अलग कर दिया। फिर मुझ पर कंकरों और सड़े अण्डों की वर्षा शुरू हुई। किसी ने मेरी पगडी उछाल कर फेंक दी। फिर लाते शुरू हूई।
मुझे गश आ गया। मैंने पास के घर की जाली पकड़ ली और दम लिया। वहाँ खड़ा रहना तो सम्भव ही न था। तमाचे पड़ने लगे।
इतने में पुलिस अधिकारी की स्त्री जो मुझे पहचानती थी, रास्ते से गुजरी। मुझे देखते ही वह मेरी बगल में आकर खड़ी हो गयी और धूप के न रहते भी उसने अपनी छतरी खोल ली। इससे भीड़ कुछ नरम पड़ी। अब मुझ पर प्रहार करने हो, तो मिसेज एलेक्जेण्डर को बचाकर ही किये जा सकते थे।
इस बीच मुझ पर मार पड़ते देखकर कोई हिन्दुस्तानी नौजवान पुलिसथाने पर दौड़ गया। सुपरिटेण्डेण्ट एलेक्जेण्डर ने एक टुकड़ी मुझे घेर कर बचा लेने के लिए भेजी। वह समय पर पहुँची। मेरा रास्ता पुलिस थाने के पास ही होकर जाता था। सुपरिटेण्डेण्ट ने मुझे थाने में आश्रय लेने की सलाह दी। मैंने इन्कार किया और कहा, 'जब लोगों को अपनी भूल मालूम हो जायेगी, तो वे शान्त हो जायेंगे। मुझे उनकी न्यायबुद्धि पर विश्वास हैं।'
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