जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
अतएव नेटाल के अंग्रेज जिस सभ्यता की उपज थे, जिसके प्रतिनिधि और हिमायती थे, उस सभ्यता के प्रति मेरे मन में खेद उत्पन्न हुआ। मैं उसी का विचार करता रहता था, इसलिए इस छोटी-सभा के सामने मैंने अपने वे ही विचार रखे और श्रोता वर्ग ने उन्हें सहन कर लिया। जिस भाव से मैंने उन्हे रखा, कप्तान आदि ने उसी भाव में उन्हें ग्रहण किया। उन विचारों से उनके जीवन में कोई फेरफार हुआ या नहीं सो मैं नहीं जानता। पर कप्तान और दूसरे अधिकारियो के साथ पश्चिमी सभ्यता के विषय में मेरी खूब बाते हुई। मैंने पश्चिमी सभ्यता को प्रधानतया हिंसक बतलाया और पूर्व की सभ्यता को अहिंसक। प्रश्नकर्ताओं ने मेरे सिद्धान्त मुझी पर लागू किये। बहुत करके कप्तान ने ही पूछा : 'गोरे जैसी धमकी दे रहे हैं उसी के अनुसार वे आपको चोट पहुँचाये तो आप अहिंसा के अपने सिद्धान्त पर किस तरह अमल करेंगे।'
मैंने जवाब दिया : 'मुझे आशा हैं कि उन्हें माफ कर देने की और मुकदमा न चलाने की हिम्मत और बुद्धि ईश्वर मुझे देगा। आज भी मुझे उनपर रोष नहीं हैं। उनके अज्ञान, उनकी संकुचित दृष्टि के लिए मुझे खेद होता हैं। मैं समझता हूँ कि वे जो कह रहे हैं और कर रहे हैं वह उचित हैं, ऐसा वे शुद्ध भाव से मानते हैं। अतएव मेरे लिए रोष का कोई कारण नहीं हैं।' पूछनेवाला हँसा। शायद मेरी बात पर उसे विश्वास नहीं हुआ।
इस प्रकार हमारे दिन बीतते गये और लम्बे होते गये। सूतक समाप्त करने की अवधि अन्त तक निश्चित नहीं हुई। इस विभाग के अधिकारी से पूछने पर वह करता, 'यह मेरी शक्ति से बाहर हैं। सरकार आदेश दे तो मैं आप लोगों को उतरने की इजाजत दे दूँ।'
अन्त में यात्रियों को और मुझे अल्टिमेटम मिले। दोनोंं को धमकी दी गयी कि तुम्हारी जान खतरे में हैं। दोनोंं ने नेटाल के बन्दर पर उतरने के अपने अधिकार के विषय में लिखा और अपना निश्चिय घोषित किया कि कैसा भी संकट क्यों न हों, हम अपने इस अधिकार पर डटे रहेगे।
आखिर तेईसवें दिन, अर्थात् 13 जनवरी 1817 के दिन स्टीमरों को मुक्ति मिली औऱ यात्रियों को उतने का आदेश मिला।
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