जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
कस्तूरबाई में यह भावना थी या नहीं, इसका मुझे पता नहीं। वह निरक्षर थी। स्वभाव से सीधी, स्वतंत्र, मेंहनती और मेरे साथ तो कम बोलने वाली थी। उसे अपने अज्ञान का असंतोष न था। अपने बचपन में मैंने कभी उसकी यह इच्छा नहीं जानी कि वह मेरी तरह वह भी पढ़ सके तो अच्छा हो। इसमें मैं मानता हूँ कि मेरी भावना एकपक्षी थी। मेरा विषय-सुख एक स्त्री पर ही निर्भर था और मैं उस सुख का प्रतिघोष चाहता था। जहाँ प्रेम एक पक्ष की ओर से होता हैं वहाँ सर्वांश में दुःख तो नहीं ही होता। मैं अपनी स्त्री के प्ति विषायाक्त था। शाला में भी उसके विचार आते रहते। कब रात पड़े और कब हम मिले, यह विचार बना ही रहता। वियोग असह्य था। अपनी कुछ निकम्मी बकवासों से मैं कस्तूरबाई को जगाये ही रहता। मेरा ख्याल हैं कि इस आसक्ति के साथ ही मुझमें कर्तव्य-परायणता न होती, तो मैं व्याधिग्रस्त होकर मौत के मुँह में चला जाता, अथवा इस संसार में बोझरुप बनकर जिन्दा रहता। 'सवेरा होते ही नित्यकर्म में तो लग जाना चाहिए, किसी के धोखा तो दिया ही नहीं जा सकता' ... अपने इन विचारों के कारण मैं बहुत से संकटों से बचा हूँ।
मैं लिख चुका हूँ कि कस्तूरबाई निरक्षर थी। उसे पढ़ाने का मेरी बड़ी इच्छा थी। पर मेरी विषय-वासना मुझे पढ़ाने कैसे देती? एक तो मुझे जबरदस्ती पढ़ाना था। वह भी रात के एकान्त में ही हो सकता था। बड़ों के सामने तो स्त्री की तरफ देखा भी नहीं जा सकता था। फिर बात-चीत कैसे होती? उन दिनों काठियावाड़ में घूँघट निकालने का निकम्मा और जंगली रिवाज था; आज भी बड़ी हद तक मौजूद हैं। इस कारण मेरे लिए पढ़ाने की परिस्थितियाँ भी प्रतिकूल थी। अतएव मुझे यह स्वीकार करना चाहिये कि जवानी में पढ़ाने के जितने प्रयत्न मैंने किये, वे सब लगभग निष्फल हुए। जब मैं विषय की नींद से जागा, तब तो सार्वजनिक जीवन में कूद चुका था। इसलिए अधिक समय देने की मेरी स्थिति नहीं रहीं थी। शिक्षको के द्वारा पढ़ाने के मेरे प्रयत्न भी व्यर्थ सिद्ध हुए। यही कारण हैं कि आज कस्तूरबाई की स्थिति मुश्किल से पत्र लिख सकने और साधारण गुजराती समझ सकने की हैं। मैं मानता हूँ कि अगर मेरा प्रेम विषय से दूषित न होता तो आज वह विदुषी स्त्री होती। मैं उसके पढने के आलस्य को जीत सकता था, क्योंकि मैं जानता हूँ कि शुद्ध प्रेम के लिए कुछ भी असम्भव नहीं हैं।
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