जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
पतित्व
जिन दिनों मेरा विवाह हुआ, उन दिनो निबन्धो की छोटी-छोटी पुस्तिकायें -- पैसे-पैसे या पाई- पाई की, सो तो कुछ याद नहीं -- निकलती थी। उनमे दम्पती-प्रेम, कमखर्ची, बालविवाह आदि विषयो की चर्चा रहती थी। उनमें से कुछ निबन्ध मेरे हाथ में पड़ते और मैं उन्हे पढ़ जाता। मेरी यह आदत तो थी कि पढ़े हुए में से जो पसन्द न आये उसे भूल जाना और जो पसन्द आये उस पर अमल करना। मैंने पढ़ा था कि एकपत्नी-व्रत पालना पति का धर्म हैं। बात हृदय में रम गयी। सत्य का शौक तो था ही इसलिए पत्नी को धोखा तो दे ही नहीं सकता था। इसी से यह भी समझ में आया कि दूसरे की स्त्री के साथ सम्बन्ध नहीं रहना चाहिए। छोटी उमर में एकपत्नी-व्रत के भंग की सम्भावना कम ही रहती हैं।
पर इन सद् विचारो का एक बुरा परिणाम निकला। अगर मुझे एक-पत्नी-व्रत पालना हैं, तो पत्नी को एक-पति-व्रत पालना चाहिये। इस विचार के कारण मैं ईर्ष्यासु पति बन गया। 'पालना चाहिये' में से मैं 'पलवाना चाहिये' के विचार पर पहुँचा। और अगर पलवाना हैं तो मुझे पत्नी की निगरानी रखनी चाहिये। मेरे लिए पत्नी की पवित्रता में शंका करने का कोई कारण नहीं था। पर ईर्ष्या कारण क्यों देखने लगी? मुझे हमेशा यह जानना ही चाहिये कि मेरी स्त्री कहाँ जाती हैं। इसलिए मेरी अनुमति के बिना वह कहीं जा ही नहीं सकती। यह चीज हमारे बीच दुःखद झगड़े की जड़ बन गयी। बिना अनुमति के कहीं भी न जा सकना तो एक तरह की कैद ही हुई। पर कस्तूरबाई ऐसी कैद सहन करने वाली थी ही नहीं। जहाँ इच्छा होती वहाँ मुझसे बिना पूछे जरुर जाती। मैं ज्यों-ज्यों दबाव डालता, त्यों-त्यों वह अधिक स्वतंत्रता से काम लेती, और मैं अधिक चिढ़ता। इससे हम बालको के बीच बोलचाल का बन्द होना एक मामूली चीज बन गयी। कस्तूरबाई ने जो स्वतंत्रता बरती, उसे मैं निर्दोष मानता हूँ। जिस बालिका के मन में पाप नहीं हैं, वह देव-दर्शन के लिए जाने पर या किसी से मिलने जाने पर दबाव क्यों सहन करें? अगर मैं उस पर दबाव डालता हूँ, तो वह मुझ पर क्यों न डाले ? ... यह तो अब मुझे समझ में आ रहा हैं। उस समय तो मुझे अपना पतित्व सिद्ध करना था। लेकिन पाठक यह न माने कि हमारे गृहृजीवन में कहीं भी मिठास नहीं थी। मेरी वक्रता की जड़ प्रेम में थी। मैं अपनी पत्नी को आदर्श पत्नी बनाना चाहता था। मेरी यह भावना थी कि वह स्वच्छ बने, स्वच्छ रहें, मैं सीखूँ सो सीखें, मैं पढ़ू सो पढ़े और हम दोनों एक दूसरे में ओत-प्रोत रहें।
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