जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
अंग्रेजो की रहन-सहन की तुलना में हमारी रहन-सहन गन्दी हैं, इसे मैं देख चुका था। मैंने इसकी ओर भी उनका ध्यान खींचा। हिन्दु, मुसलमान, पारसी, ईसाई, अथवा गुजराती, मद्रासी, पंजाबी, सिन्धी, कच्छी, सूरती आदि भेदों को भुला देने पर जोर दिया।
अन्त में मैंने यह सुझाया कि एक मंडल की स्थापना करके हिन्दुस्तानियो के कष्टों और कठिनाईयों का इलाज अधिकारियो से मिलकर और अर्जियाँ भेजकर करना चाहियें, और यह सूचित किया कि मुझे जितना समय मिलेगा उतना इस काम के लिए मैं बिना वेतन के दूँगा।
मैंने देखा कि सभा पर मेरी बातो का अच्छा प्रभाव पड़ा।
मेरे भाषण के बाद चर्चा हुई। कईयों में मुझे तथ्यों की जानकारी देने को कहा। मेरी हिम्मत बढी। मैंने देखा कि इस सभा में अंग्रेजी जाननेवाले कुछ ही लोग थे। मुझे लगा कि ऐसे परदेश में अंग्रेजी का ज्ञान हो तो अच्छा हैं। इसलिए मैंने सलाह दी कि जिन्हें फुरसत हों वे अंग्रेजी सीख ले। मैंने यह भी कहा कि अधिक उमर हो जाने पर भी पढ़ा जा सकता हैं। औरक इस तरह पढनेवालों के उदाहरण भी दिये। और कोई क्लास खले तो उसे अथवा छुट-फुट पढ़ने वाले तो उन्हें पढ़ाने की जिम्मेदारी मैंने खुद अपने सिर ली। क्लास तो नहीं खुला, पर तीन आदमी अपनी सुविधा से और उनके घर जाकर पढाने की शर्त पर पढ़ाने की शर्त पर पढने के लिए तैयार हुए। इनमे दो मुसलमान थे। दो में से एक हज्जाम था और एक कारकुन था। एक हिन्दु छोटा दुकानदार था। मैंने सबकी बात मान ली। पढ़ाने की अपनी शक्ति के विषय में तो मुझे कोई अविश्वास था ही नहीं। मेरे शिष्यो को थका माने तो वे थके कहे जा सकते है पर मैं नहीं थका। कभी ऐसा भी होता कि मैं उनके घर जाता और उन्हे फुरसत होती। पर मैंने धीरज न छोड़ा। इनमे से किसी को अंग्रेजी का गहरा अध्ययन तो करना न था। पर दोनो ने करीब आठ महीनों में अच्छी प्रगति कर ली, ऐसा कहा जा सकता हैं। दोने हिसाब-किताब रखना और साधारण पत्रव्यवहार करना सीख लिया। हज्जाम को तो अपने ग्राहकों के साथ बातचीत कर सकने लायक ही अंग्रेजी सीखनी थी। दो व्यक्तियो ने अपनी इस पढाई के कारण ठीक-ठीक कमाने की शक्ति प्राप्त कर ली थी।
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