धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
प्रभु की वार्ता में संलग्न दोनों प्रेमी आवास स्थान पर लौटकर आते हैं। अयोध्या के नागरिक भी सिंसुपा वृक्ष का दर्शन करते हैं। प्रदक्षिणा करते हैं। प्रभु के आवास ने तो उस स्थल को धन्य बनाया ही था। पर आज भरत के आँसुओं के सिंचित होकर वहाँ का कण-कण मानों भावमय हो रहा था। प्रत्येक व्यक्ति वहाँ जाकर अनोखी भाव-समाधि में डूब जाता है।
रात को नींद कहाँ? प्रातःकाल हुआ। निषाद जी के सुप्रबन्ध से पार उतरने में शीघ्रता हुई। और पुनः यात्रा प्रारम्भ हुई।
पादत्राण विहीन सुकुमार चरण। और दूसरी ओर अभागे देव भी कठिनाइयों द्वारा मार्ग से विरत करना चाहते हैं। पर वह अनोखा प्रेमी चौगुने उत्साह से बढ़ता जा रहा है अपने राघव की दिशा में। अपने प्रभु में डूबे हुए व्यक्ति को सूर्य की प्रखर किरणों और भूमि के कर्कशता का ध्यान कहाँ? सेवक बार-बार प्रार्थना करते हैं। ‘नाथ! अश्व पर सवार हो जाएँ’ उत्तर मिला –
“मित्रों! मैं तो धर्म का भी पूर्ण रूप से पालन नहीं कर पा रहा हूँ। उचित तो यही है कि मैं सिर के बल चित्रकूट तर जाता। जिस भूमि में प्रभु के चरण-कमल अंकित थे, वहाँ मेरा मस्तक पड़ता, किन्तु मैं शक्तिहीन हूँ, ऐसा न कर सका। तो क्या आप लोग अश्व पर सवार कराकर मुझे सेवक-धर्म से सर्वथा विरत कर देना चाहते हैं? नहीं, नहीं सेवक-धर्म इतना सुगम नहीं” –
इस एक वाक्य में भरत ने सेवा-धर्म का सर्वस्व ही बता दिया। ‘सेवा धर्मो परमगहनो योगिनामाप्यगम्यः’ का इससे उचित अर्थ करना ही कठिन है।
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