धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
स्नेह भरे शब्दों में राघव पूछते हैं – “वत्स भरत कुशल”... और कण्ठ रुद्ध हो गया। इधर प्रेममूर्ति की दशा तो और भी निराली है। उत्तर देना चाहते हैं, पर कण्ठ रुँध गया है। बड़ी कठिनाई से कहते हैं – “अब कु...स...ल कौसलनाथ आरत जानि जन दर.... सन दियो – बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो।”
इतनी कथा सुनाते-सुनाते भगवान् शंकर का कण्ठ भी रुद्ध हो गया। प्रेमभरी भवानी ने कहा- भगवन् ! स्वयं न मग्न होइए। दासी पर कृपा हो। भूतभावन शिव ने कहा – प्रिये अहा ! वह सुख वर्णनीय नहीं। हमारे लिए भी वह दुर्लभ है। “जान जो पावई” में कैसी मधुर ईर्ष्या है। सचमुच उस सुख का, उस मिलनानन्द का भागी विश्व में भरत को छोड़ कौन हो सकता है। भरत से मिलकर प्रभु शोभित हुए। महाकवि कह देते हैं – “जनु प्रेम अरु श्रृंगार तनु धरि” – श्रृंगार प्रेम बिना सर्वथा नीरस है – व्यर्थ है। इसका एक मधुर भाव है। साधारणतया श्रृंगार का आश्रय माना जाता है काम और काम है दुःखों का मूल। प्रभु के आने का प्रयोजन है लोगों का चित्त अपने इस दिव्य श्रृंगार के द्वारा लौकिक श्रृंगार से हटाकर अनन्त सौंदर्य माधुर्य-रस-सिन्धु स्वयं में डुबाकर अमर बना देना। इस अलौकिक श्रृंगार का वैशिष्ट्य श्री भरत-जैसे प्रेमियों द्वारा ही सिद्ध होता है। लौकिक श्रृंगार विषयी और भोगी बनाता है। और इस अखिल रस-सार श्रृंगार के उपासक हैं श्री भरत जैसे-वीतरागी तपस्वी। अतः बिना इस प्रेमालिंगन के प्रभु भी शोभित नहीं होते है।
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