धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
सेवा की भावना में कुशल धर्म के लिए दो हाथ हैं।
सेवकों के लिए सेवा-धर्म का मार्गदर्शन कराने के लिए दो नेत्र हैं –
“बिमल नयन सेवा सुधरम के”
किन्तु कोई उस दिव्य भाव का स्पर्श नहीं कर सका, जहाँ तक यह भावोन्मादी प्रेमव्रती पहुँचा। हमारे भैया भरत की दृष्टि में, वे दो पादुकाएँ साक्षात् “श्री सीता और राम हैं”। कोई उस प्रेमी की दृष्टि से तो देखे –
उनके हृदय में रंचमात्र सन्देह या भ्रम नहीं है कि यह युगल स्वरूप नहीं हैं। मुझे लगता है कि अवश्य ही पादुका रूप में राघव लौट आए अपने भरत के साथ। कहीं भरत से राम पृथक् रह सकते हैं? मर्यादा का पालन तो करना ही था। अतः लोकदृष्टि से पृथक् राम रह सकते हैं? हाँ मर्यादा का पालन तो करना ही था। अतः लोकदृष्टि से पादुका दी। पर पादुका थी कहाँ – प्रभु के पास? मानस में उनका ‘पयादे पाँव’ चलना स्पष्ट है, तब फिर हमारे सर्वसमर्थ जब अनेक रूप धारण कर सकते हैं, तो एक और सही। प्रेमी के लिए पादुका बन गए। यह नवीन अवतार धारण करना पड़ा अपने भरत के लिए। उनसे एकांत में मधुर संलाप करने के लिए।
अन्त में वह क्षण भी आ गया – जब भरत को विदा करने के लिए प्रेम पराधीन करुणा-वरुणालय भाव-स्रोत कौशलेन्द्र अपनी विशाल भुजाओं से प्रेममूर्ति भ्राता को हृदय में लगा लेते हैं। आज धीर शिरोमणि का धैर्य जाता रहा। घनश्याम के स्नेही नैन बरस पड़े। वह अविरल अश्रु प्रवाह क्या है? प्रभु के हृदय का भाव-स्रोत ही जो इन नेत्रों के द्वारा प्रवाहित हो रहा है। रोम-रोम से प्रेम व्यक्त हो रहा है। एक दूसरे के गाढ़ालिंगन से पृथक् ही नहीं होना चाहते। राघवेन्द्र अपनी व्यथा के भार से हिचकियाँ लेकर रुदन कर रहे हैं। मानो वे कहना चाहते हैं “भरत तूने तो पा लिया आधार – पर मैं किस आधार पर अवधि व्यतीत करूँ?” उस समय की स्थिति भाषा से परे हैं। स्वार्थी देवता भी व्यथित हो उठे।
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