धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
पुरजन परिजन प्रजा गोसाईं।
सब सुचि सरस सनेहँ सगाई।।
राउर बदि भल भव दुख दाहू।
प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू।।
स्वामि सुजानु जानि सब ही की।
रुचि लालसा रहनि जग जी की।।
प्रनतपालु पालिहि सब काहू।
देउ दुहू दिसि ओर निबाहू।।
अस मोहि सब बिधि भूरि भरोसो।
किएँ बिचारु न सोचु खरो सो।।
आरति मोर नाथ कर छोहू।
दुहुँ मिलि कीन्ह ढीठु हठि मोहू।।
यह बढ़ दोषु दूरि करि स्वामी।
तजि सकोच सिखइअ अनुगामी।।
उपर्युक्त प्रार्थना में भी उनका दैन्य देखने योग्य है। वे अपनी समस्त क्रियाओं को दोषयुक्त देखते हैं। पर प्रभु को उनके स्नेह का स्मरण दिलाते हैं। साथ ही “समस्त पुरजन परिजनों की लालसा आप पूर्ण करेंगे” – इसमें अपना दृढ़ विश्वास व्यक्त करते हुए उपदेश देने की प्रार्थना करते हैं। सब कुछ जानते हुए भी प्रभु मुख की वाणी सुनना चाहते हैं। यह उनकी भव्य भक्ति का ही एक दृष्टान्त है।
राघवेन्द्र भरत की योग्यता से परिचित हैं। फिर भी वात्सल्य उमड़ पड़ा और भरत की लालसा पूर्ण हो गई।
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