धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
प्रातःकाल स्नान के पश्चात् सारा समाज एकत्र हुआ। श्रीमद्-राघवेन्द्र के लिए “आज का मुहूर्त शुभ है” – ऐसा मन में निश्चित किया, किन्तु शीलनिधि को कहने में संकोच लगता है। एक बार वे महर्षि, श्री जनक और भैया भरत की ओर दृष्टि डालकर मुख नीचा कर लेते हैं। कौन जाने उनकी उस मूक दृष्टि का क्या रहस्य था? पर एक बात स्पष्ट थी कि शीलनिधि याचना कर रहे थे कि उन लोगों में से कोई इस परिस्थिति में मेरे शील की रक्षा कर ले – मुझे न कहना पड़े कि – “आज जाइए”। पहले गुरु वसिष्ठ की ओर दृष्टि जाती है। “गुरुदेव ! आपका कहना अनुचित भी न होगा। फिर आप धर्मज्ञ शिरोमणि और धैर्यशाली हैं। शिष्य की लाज आपके हाथ में है।” मानो मूक नेत्रों से प्रभु ने यही प्रार्थना की थी गुरु वसिष्ठ से। पर लजा कर महर्षि ने मस्तक नीचे कर लिया। “राघव ! यह न हो सकेगा मुझसे! मैं इतना निष्ठुर कैसे बनूँ। तुम्हें छोड़कर जाने का प्रस्ताव मुझसे न होगा।” सम्भव है मुनि के झुके हुए भाल में पढ़ लिया हो राघव ने। तब निराश होकर दृष्टि डालते हैं महाराज श्री जनक पर - “आप तो ज्ञानियों के भी शिक्षक हैं। विदेहराज! आप ही इस मोह को दूर कीजिए। मेरा त्राण कीजिए।” किन्तु वे बड़ी व्यथा भरी दृष्टि से कौशलेन्द्र की ओर देखते हैं - “बस राम! यह मुझसे न कहो। मैं ज्ञान का इससे बड़ा परिहास क्या मान सकता हूँ कि तुमसे पृथक् होने का प्रस्ताव करूँ। यह क्रूरता मुझसे न होगी नाथ!” तब निरुपाय होकर शील-संकोच भरे नयनों से भरत की ओर – अपने कोमल-प्राण-प्रिय, लाडले भरत की ओर, करुणा और याचना भरी दृष्टि डालते हैं। उनकी दृष्टि ने कहना प्रारम्भ किया – “भरत!” तब तक खड़े हो जाते हैं प्रेममूर्ति – “समझ गया प्रभु! आप इस दृष्टि से न देखें। आपका याचना मुझे असह्य है। आपका भरत ही इस निष्ठुर कार्य को सम्पन्न करेगा। आज प्रेम राज्य में एक नई बात लोग सुन लें। प्रेमी कहलाने वाला निष्ठुर हृदय व्यक्ति प्रियतम से प्रस्ताव करता है कि मुझे जाने की आज्ञा दीजिए।” यही मूक उत्तर था उस महामना का। हमारे राम को संकुचित न होना पड़े, बस इतने के लिए विश्व का यह अनोखा प्रेमव्रती सब कुछ करने को प्रस्तुत है। कहीं इस महात्याग की तुलना हो सकती है....।
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