धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
वास्तव में तो प्रेमी की यह चित्रकूट दर्शन की प्रार्थना, प्रियतम प्राणाभिराम के चिन्तन-स्मरण के साथ ही राघव-चरणांकित भूमि में, उस भूरि भाग्यमयी धूल में लिपटने की आकांक्षा का सूचक है।
वन-यात्रा प्रारम्भ हुई और सबके पहले विभिन्न तीर्थों से आया हुआ जल एक विशिष्ट कूप कर रचना करके उसमें स्थापित किया गया। महर्षि अत्रि ने उसका नामकरण किया “भरतकूप” –
भरतकूप अब कहिहहिं लोगा।
अति पावन तीरथ जल जोगा।।
पेम सनेम निमज्जत प्रानी।
होइहहिं बिमल करम बन बानी।।
महामुनि ने लौटकर श्रीमद्राघवेन्द्र को भरतकूप की महिमा सुनाई। कौशल-किशोर के हृदय में प्रसन्नता उमड़ पड़ी। उस रात्रि को सबने जागरण किया। धर्म और प्रेम की कथाएँ होती रहीं। प्रातःकाल पुनः यात्रा प्रारम्भ हुई। महात्मा अत्रि के साथ तप-मूर्ति भरत ने उपानरहित यात्रा प्रारम्भ की। उनके सुकुमार चरण-कमलों को देखकर पृथ्वी लज्जित होकर मृदु हो गई। क्यों न हो? भरत को कितना कष्ट दिया था इस भूमि ने लौटने की इच्छा से, फफोले पड़ गये थे। पर श्री भरत कृपा से ही भूभार हरण संभव हुआ। मन में लज्जित होकर आज वह कोमलता की मूर्ति बन गई। जिसे गोस्वामी जी के शब्दों में पढ़िये –
कोमल चरन चलत बिनु पनहीं।
भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं।।
कुस कंटक काँकरी कुराई।
कटुक कठोर कुबस्तु दुराई।।
महि मंजुल मृदु मारग कीन्हे।
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